दुनियादारी

 आज की लघुकथा गोष्ठी में मेरी प्रस्तुति:


दुनियादारी

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शादियों के दिन थे। आज बड़ा सहालग था। श्याम बाबू की तबीयत जरा ढीली थी। दफ्तर से घर पहुँचकर वो सोफे पर निढाल से पड़ गये।

थोड़ी देर में रमा चाय ले आई।

आज तबीयत जरा ढीली है, खाने में कुछ हल्का बनाना, श्याम बाबू रमा से बोले।

क्या; आज तो मैं कुछ नहीं बना रही। तीन तीन कार्ड आये हुए हैं। सभी जगह जाना भी पड़ेगा, और कम से कम पाँच पाँच सौ रुपये का लिफाफा भी देना पड़ेगा। नहीं जायेंगे तब भी बुराई होगी। ये सभी हमारे यहाँ बच्चों की.शादी में आये थे और हम तीनों से लिफाफे ले चुके हैं, रमा समझाने के अंदाज में बोली।

बात तो तुम ठीक कह रही हो,  चलो मैं थोड़ा रैस्ट करता हूँ, फिर चलते हैं। मैं केवल मूँग की दाल ले लूँगा, लिफाफे देने भी तो जरूरी हैं, कहते हुए श्याम बाबू सोचने लगे, दुनिया कहाँ से कहाँ आ गई है। पहले शादी होती थी तो पूरे मुहल्ले वाले मिलजुल कर काम कराते थे मानो अपने घर में ही शादी हो। प्रत्येक व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार उपहार देता था।

अब तो सारी दुनियादारी एक लिफाफे में सिमट कर रह गई है।


श्रीकृष्ण शुक्ल, 

MMIG - 69,

रामगंगा विहार,

मुरादाबाद।

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