सपनों का शहर : एक पठनीय व रोचक लघुकथा संग्रह
सपनों का शहर : एक पठनीय व रोचक लघुकथा संग्रह
जीवन की आपाधापी में तमाम मोड़ ऐसे आते हैं जहाँ परिस्थितियाँ अप्रत्याशित होती हैं I कहीं सामान्य मानवीय व्यवहार के कारण तो कहीं मानवीय मूल्यों के क्षरण के कारण ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो हतप्रभ कर देती हैं I
ऐसे ही घटनाक्रमों के कथानक को लेकर सूक्ष्मता से व प्रभावशाली ढंग से कम से कम शब्दों में व्यक्त करने की विधा है लघुकथा I
जी हाँ , आज हम बात कर रहे हैं मुरादाबाद के लब्ध प्रतिष्ठ व वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय अशोक विश्नोई जी के लघुकथा संग्रह 'सपनों का शहर' की , जिसका लोकार्पण विगत 16 जुलाई को साहित्यिक मुरादाबाद के संयोजन में आयोजित अत्यंत भव्य कार्यक्रम में हुआ था I
आदरणीय विश्नोई जी का यह दूसरा लघुकथा संग्रह है I उन्हीं के शब्दों में विश्नोई जी कहते हैं कि वो वही लिखने का प्रयास करते हैं जो समाज में घटित होता है - अर्थात जैसा देखा वैसा लिखा I
उनके उपरोक्त कथन के अनुरूप ही इस संग्रह में सभी लघुकथाएं अपने आस पास के परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं पर ही आधारित हैं I लघुकथा पढ़ते पढ़ते लगता है कि ये तो हमारे संज्ञान में है, या ऐसी घटनाएं तो आम बात हैं और यहाँ वहाँ घटती ही रहती हैं, किंतु उनकी लघुकथाएं तमाम विसंगतियों को सशक्त रूप से दर्शाती भी हैं और संदेश भी देती हैं I
भाषा और प्रस्तुति की शैली भी सामान्य और सहज है, कहीं भाषा की क्लिष्टता या गूढ़ता नहीं मिलती I
उक्त संग्रह में उनकी 101 लघुकथाएं संकलित हैं I
पहली ही लघुकथा में सेठ जी द्वारा भिखारी को दस रुपये न देकर भगा देना और फिर केवल दस रुपये के अंतर से टेंडर निरस्त हो जाना, जरूरतमंदों की मदद करने व उनके साथ अच्छा व्यवहार करने का संदेश देता है I
इसी प्रकार आदमी शीर्षक की लघुकथा में सेठ जी को और करारा तमाचा लगता है, जब पानी पिलाने की गुहार लगाता फकीर कहता है, 'सेठ जी कुछ देर के लिये आप ही आदमी बन जाइए' II
कुछ लघुकथाएं कल्पना पर आधारित प्रतीत होती हैं I हालाँकि वे हास्य प्रधान लघुकथाएं हैं, जैसे 'मजबूरी' नामक लघुकथा को ही लें, जहाँ पंद्रह दिन से टिके मेहमानों को विदा करने के उद्देश्य से तांत्रिक को बुलाया गया, योजनानुसार तांत्रिक ने धूनी रमाकर कहा : नये की बलि दो, और नत्थू की पत्नी ने जैसे ही कहा: महाराज नया तो कोई नहीं है, हाँ चार मेहमान जरूर हैं, जिसे सुनकर मेहमान भाग लिये I इस लघुकथा में कल्पना जनित हास्य झलकता है, जो पाठक को आनंदित करता है I
ऐसी ही लघुकथा कंजूस बाप है जो घड़ी खराब हो जाने के कारण बार बार कंजूस बाप से पचास रुपये माँगने आ जाता है, और अंतत: बाप घड़ी को ही पत्थर से कूटकर समाप्त कर देता है I
एक और रोचक कथा है कवि गोष्ठी जिसमें आयोजक कवि की छंदमुक्त रचना पर दाद अधिक देन दी संबंधित दो कवियों का संवाद था, और लाइट आनेपर उन्हें ज्ञात हुआ कि वह कवि महोदय बगल में ही खड़े सुन रहे थे I
इसी प्रकार सभी लघुकथाएं रोजमर्रा के क्रियाकलापों, मानवीय व्यवहार, ऊँच नीच, छल फरेब,लालच, दुराचार, आदि मानवीय बुराइयों का पर्दाफाश करती हैं और समाज को इनसे विलग रहने का संदेश देती हैं I
समग्रता में देखें तो श्री विश्नोई जी इन लघुकथाओं के माध्यम से पाठकों को तमाम विसंगतियों और असहज परिस्थितियों से अवगत कराने के साथ साथ इन तमाम बुराइयों के प्रति सचेत करते हैं, साथ ही रोचकता बनाये रखने में सफल रहे हैं I
कुल मिलाकर सपनों का शहर एक बार तो पठनीय संग्रह है ही I
इन्हीं शब्दों के साथ पुन: श्री विश्नोई जी को शुभकामनाएं ज्ञापित करता हूँ I
श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG - 69,
रामगंगा विहार,
मुरादाबाद I
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