बाढ़ के बीच दो दिन

 रामगंगा चढ़ी हुई है, बाढ़ का एलर्ट है। 

ऐसे में प्रस्तुत है बाढ़ के अनुभव का संस्मरण। 


बाढ़ के बीच दो दिन

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वर्ष 2010 की बात है।  18 सितंबर शनिवार को सायं 4 बजे से तेज बारिश की झड़ी लग गयी। 

उस समय मैं बिधुना (औरैया) शाखा में नियुक्त था और मुरादाबाद आने के लिये कन्नौज बस अड्डे पर खड़ा था।  बस में यात्रा के दौरान भी निरंतर कभी तेज तो कभी मद्धिम वर्षा होती रही।  जैसे तैसे सुबह के 4.00 बजे मुरादाबाद घर पहुँचे।  उस समय भी वर्षा हो रही थी। 

अगले दिन रविवार को हमारे नवजात पौत्र की छठी का आयोजन था। उस दिन भी पूरे दिन कभी तेज तो कभी छिटपुट बारिश होती रही। शाम को छठी के आयोजन के बाद मैं अपनी जीजी व जीजाजी को कार द्वारा उनके घर ( जो गंगा मंदिर के पास, किसरौल में रहते थे) छोड़ने गया। बारिश उस समय भी हो रही थी और जगह जगह सड़कों पर पानी भरा था। 

उस दिन भी देर रात तक बारिश होती रही। 

अगले दिन प्रातः आसमान साफ था। रामगंगा का जलस्तर निरंतर बढ़ रहा था, किंतु हमारे घर के सामने सड़क पर पानी नहीं था, जिस कारण हम निश्चिंत थे। इससे पूर्व भी जब जब रामगंगा चढ़ती थी, हमारी सड़क पर थोड़ा पानी आता था जो एक दिन में ही उतर जाता था। 

दोपहर 12 बजे सड़क पर पानी भरने लगा जो बढ़ता ही जा रहा था। उस समय एहसास हुआ कि यदि पानी और एक फुट बढ़ा तो घर के अंदर आ जायेगा। हमने पत्नी से कहा कि जरूरी जरूरी सामान समेटो और धीरे धीरे ऊपरशिफ्ट करते हैं , किंतु पत्नी बोलीं आप व्यर्थ परेशान हो रहो हो , पानी और नहीं बढ़ेगा। 

तभी लगभग दो बजे पानी अचानक बड़ी तेजी से बढ़ने लगा ओर हमारे घर के स्तर तक आ गया, घर की नालियों व फ्लैश से भी पानी बैक होने लगा। 

फिर तो पत्नी भी घबरा गयीं और हम दोनों मिलकर जरूरी सामान समेटने लगे।  मैं, मेरी बेटी, पत्नी और नवजात पौत्र के साथ पुत्रवधू ही घर पर थे। बेटा नौकरी पर गया हुआ था। मैंने सर्वप्रथम फ्रिज से पीने के पानी की बोतलें ऊपर भिजवाईं, फिर गैस सिलेंडर व चूल्हा ऊपर पहुँचाया। पत्नी ने परांठे और सब्जी आदि बना रखी थी वह ऊपर पहुँचाई। साथ ही जो जो जरूरी सामान नजर आता जा रहा था वह हम तीनों मिलकर ऊपर पहुँचाते जा रहे थे। उस समय हमारे पास बी एस एन एल का लैंडलाइन फोन भी था। वह भी ऊपर शिफ्ट किया, क्योंकि मोबाइल डिस्चार्ज होने के बाद वही एकमात्र सहारा था, और वास्तव में वह बहुत काम आया। जो भारी सामान था वह हम कुछ ऊँचाई पर रखते जा रहे थे ताकि अभी पानी से बचाया जा सके, शाम को बेटे के आने पर हम और वो मिलकर ऊपर चढ़ा लेंगे। यह प्रक्रिया चलते चलते घर में घुटनों तक पानी आ गया था। हम तीनों तब तक पस्त हो चुके थे। 

आटे व दाल चावल आदि जिंस हमने स्टील की पवाली में इकट्ठे रख दिए थे, बाकी सामान उठाकर डबल बैड व दीवान और डाइनिंग टेबल पर इकट्ठा कर दिया था। कीमती कपड़ों और साड़ियों के ब्रीफकेस ट्रंक पर रख दिए थे। 

हमने अपने पुत्र को सारी स्थिति फोन पर बता दी और उसको शीघ्र घर लौटने को कहा और षह भी कहा कि आते समय ब्रैड, बिस्कुट, नमकीन और मोमबत्तियां लेता आये। फिर भी उसे आते आते शाम हो ही गई और शाम के लगभग 5 बजे सड़क पर डिवाइडर के सहारे सहारे हाथों में थैलियां थामे, कमर कमर तक पानी में चलता हुआ वह घर आया। 

उसके घर आने के बाद हम पुनः नीचे गये ताकि भारी सामान नीचे से लाया जा सके। अंदर घुसते ही जो नजारा दिखाई दिया वह अनपेक्षित था। आटे, चावल और दाल के ड्रम पानी में लुढ़क कर तैर रहे थे और पानी में सब खराब हो चुके थे, पहले ऐसी कोई आशंका ही नहीं थी कि भारी भरकम सामान भी पानी पर तैर जाएगा। फ्रिज भी लुढ़का हुआ तैर रहा था।  जिस दीवान के ऊपर हमने पानी से बचाने को सामान रखा था वह भी तैर रहा था और तमाम सामान नीचे गिर कर खराब हो गया था। यहाँ अब बचाने को कुछ नहीं था, अतः मैं बिस्तर आदि उठाने के लिये अंदर स्टोर रूम में गया। बिस्तर आदि लेकर हमारा पुत्र ऊपर गया और मैं नीचे कुछ और सामान एकत्र करने लगा। बिजली बंद थी , स्टोर रूम में अँधेरा था, पानी कमर तक आ गया था, मैंने स्टोर का दरवाजा खोला तो नहीं खुला, और जोर लगाने पर भी नहीं खुला, फिर मैंने हाथ का सामान रखकर दोनों हाथों से जोर लगाकर खींचा, एक बार तो लगा कि हैंडल टूटकर हाथ में न आ जाये, लेकिन जोर लगाकर खींचने पर दरवाजा खुल गया और हम ऊपर की मंजिल पर आ गये। उसके बाद हमारी हिम्मत नीचे जाने की नहीं हुई। 

मोमबत्तियों की रोशनी में रात का खाना खाकर हम टेरेस पर बैठकर पानी का जायजा लेते रहे। अड़ोस पड़ोस में सभी अपनी अपनी बालकनी में थे। पानी हमारे जीने की चौथी सीढ़ी तक आ गया था, हत्थे के नल का सिर्फ ऊपरी हिस्सा दिख रहा था, हमारी कार जो बिल्कुल नई थी, पानी में डूब चुकी थी, आधी खिड़कियाँ पानी में डूब गईं थीं। आस पड़ोस के कुछ लड़के पानी में कूद व तैर रहे थे। एक आध बार हमने समझाने की कोशिश की लेकिन वह तभी माने जब एक को चोट लग गयी। रात के 1 बजे के लगभग पानी बढ़ना बंद हो गया था। नींद भी आने लगी थी अतः हम अंदर जाकर सो गये। 

सुबह 5 बजे फिर उठकर बाहर आये तो देखा पानी लगभग 2-3 इंच कम हुआ था। तभी सड़क पर छाती तक पानी में नंगे बदन, हाथ मैं लाठी थामे 2 व्यक्ति गुजरे, उनसे पता चला कि पानी बाहर मुख्य कांठ रोड पर भी घुटनों तक चल रहा है। 

खैर साहब सुबह की चाय लायक सामग्री हम पर थी , अतः चाय बना कर पी गई। ऊपर शौच जाते समय लगा कि कहीं पाइप भर न जाये क्योंकि नीचे से तो पाइप आदि भरे हुए थे, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। ऊपर टंकी में पानी था जिस कारण कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन पीने का पानी और दूध खत्म हो चुका था। सुबब 10 बजे तक पानी लगभग 1 फुट उतर गया था, लेकिन कहीं आना जाना संभव नहीं था।  आस पास के गाँव वाले अपने अपने ट्रैक्टर लेकर सड़क पर आ गये थे और मुँहमांगे पैसे लेकर लोगों को निकालने में लग गये। लगभग 11 बजे कुछ स्वयं सेवक और सामाजिक कार्यकर्ता भी आ गये और उन्होंने हमारी ओर दूध की थैली और पानी की बोतल फेंकी, मांगने पर एक बोतल और फेंकी जो गिरकर फट गयी। थोड़ी देर बाद एक दल और आया जिसने खाने की थैलियां फेंकी, जिसमें लगभग 12 पूरियां और आलू की सब्जी थी। 

उस वक्त वास्तव में महसूस हो गया कि प्रकृति के सम्मुख मानव कितना विवश होता है, प्रकृति अपनी पर आ जाये तो जरा सी देर में राजा को रंक बना दे। यही हमारा हाल था। समस्त साधन संपन्न होने के बाद भी प्रकृति ने कैद करके एक घूंट पानी तक को तरसा दिया था। 

हमें अपनी पुत्रवथू और नवजात पौत्र की चिंता थी। बाढ़ कंट्रोल रूम को फोन करके सहायता मांगी। आश्वासन तो हर बार मिला किंतु कोई सहायता नहीं आयी। हमारा छोटा भाई और बेटा अक्सर पी ए सी के तरण ताल में तैरने जाते थे। छोटे भाई ने वहाँ के प्रशिक्षकों से संपर्क करके उन्हें अपनी समस्या बताई। थोड़ी देर में हमारे पास उनका फोन आया और हमारी लोकेशन जानी। लगभग आधे घंटे बाद पी ए सी के चार जवान स्ट्रेचर लेकर पैदल पैदल आये और हमारी बहू को उसपर लिटाकर पानी में से निकाल ले गये। हमारा लड़का अपने नवजात शिशु को लेकर पानी में उतरा किंतु वह असंतुलित होने लगा तो एक जवान ने शिशु को अपनी गोद में ले लिया। तभी वहाँ पर एक जेसीबी भी आ गई।  मकान में ताला लगाकर हम, हमारी पत्नी और बेटी भी जेसीबी पर बैठकर बाहर रोड तक आये। रोड पर उस समय तक पानी उतर चुका था। हम सब अपने पुत्र की गाड़ी से शिवपुरी स्थित अपने पैतृक मकान पर पहुँचे तब जाकर राहत की सांस आयी। 

यद्यपि मैैं और मेरा पुत्र उसके बाद शाम को भी घर गये। मकान में घुटनों घुटनों पानी उस समय भी था। अपना मूल्यवान सामान जो हमने एक अटैची में रख दिया था, लेकर हम रात तक पुनः वापस आ गये। 

अगले दिन, अर्थात 22 तारीख को पानी घर में से बिल्कुल उतर गया था, यद्यपि सड़क पर तब भी पानी था। पानी उतरने के बाद हम पति पत्नी घर की साफ सफाई, खराब हुए सामान को निकालने और डिस्पोजल में जुट गये। जो काम का सामान था वह बाँट दिया, जो काम का नहीं रहा वह फेंक दिया। 

इन्वर्टर, फ्रिज, पानी की मोटर आदि खराब हो गये। सबसे ज्यादा नुकसान कार में हुआ। नये नये कपड़ों और साड़ियों के ब्रीफकेस यद्यपि ऊँचाई पर रख दिये थे किंतु वह भी पानी में नीचे से भीग गये और कपड़े पानी पीते रहे तथा सभी कपड़ों पर निशान पड़ गये और कपड़े खराब हो गये।

उस बार ही हमने वास्तव में जाना कि बाढ़ की विभीषिका क्या होती है। हमने तो एक दिन ही त्रासदी झेली, और येन केन प्रकारेण मदद भी हम तक पहुँच गयी और हम सुरक्षित बाहर आ गये, उन लोगों की स्थिति की कल्पना करके ही दिल बैठ जाता है जिनका पूरा घर बाढ़ में डूब जाता है और कई कई दिन तक सब घरबार त्याग कर सड़कों पर डेरा डालना पड़ता है, इनमें से तमाम परिवार तो हर वर्ष बाढ़ की त्रासदी झेलते हैं। 

मानव और प्रकृति के मध्य यह संघर्ष हर साल कहीं न कहीं अपना वीभत्स रूप दिखाता रहता है और मनुष्य को प्रकृति के सम्मुख असहाय होने का एहसास करवा जाता है। 


श्रीकृष्ण शुक्ल,

MMIG 68,

रामगंगा विहार, 

मुरादाबाद (उ.प्र.)

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