अटल जी के महा प्रमाण पर
युगपुरुष चला गया
ये संभवतः 1965-66 की बात है, मैं हाईस्कूल में पढ़ता था जब अटल जी मुरादाबाद आए थे.
पहली बार अटल जी को मैंने तब ही सुना था. मैने बिल्कुल मंच के समीप बैठकर उनका भाषण सुना था. उनकी वक्तृत्व कला ने मुझे सम्मोहित सा कर दिया था. निरंतर धारा प्रवाह वाणी, शब्द मानो कविता के रुप में बह रहे थे, उनकी वो भाव भंगिमा और बीच बीच में मनोविनोद और चुटीला अंदाज, मेरे मन पर अंकित हो चुका था. उसके पश्चात तो मैं जब भी मुरादाबाद या उसके आस पास उनके आने की सूचना मिलती उन्हें सुनने जाता.
संयोग से मेरा विवाह उस परिवार में हुआ जो जनसंघ से जुड़ा था.
मेरी पत्नि उन्हें ताऊ जी कहती थीं. सन् 1972 में वह काशीपुर हमारी ससुराल में आए भी थे.
हमारे श्वसुर साहब अक्सर उनसे जुड़े संस्मरण सुनाते रहते थे.
अटल जी की कविताओं ने भी मुझे अत्यंत प्रभावित किया.
उनकी कविताओं में देश प्रेम और हिन्दुत्व का संपूर्ण दर्शन समाहित था. भारत उनके लिए सिर्फ भूमि का टुकड़ा नहीं था बल्कि जीता जागता राष्ट्र पुरुष था, और हिन्दुत्व समस्त समाज की सेवा करने का माध्यम जिसमें व्यष्टि को समष्टि के लिए बलिदान कर देने की भावना है,
मैं तो समाज की थाती हूँ, मैं तो समाज का हूँ सेवक
मैं तो समष्टि के लिये व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय
हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन, रग रग हिन्दू मेरा परिचय
उन्होंने राजनीति में भी कभी नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया. सबसे बड़ा दल होने के बाद भी तेरह दिन में विश्वास मत भाषण के पश्चात सरकार से त्याग पत्र दे दिया, फिर एक वोट से तेरह माह की सरकार गिरने दी लेकिन तोड़ फोड़ की राजनीति नहीं की. उसके बाद आए तो पूरे पाँच साल सफलता से सरकार चलाई. 2004 में अनपेक्षित रूप से हार हुई तो बिना किसी मलाल के विपक्ष में बैठे.
ऐसे युग दृष्टा, उदारमना सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी, प्रखर वक्ता, ओजस्वी कवि, विलक्षण राजनेता के चले जाने से भारतीय राजनीति में ऐसा शून्य बन गया है जिसकी पूर्ति असंभव है.
उन्हीं की कविताओं का आश्रय लेकर उन्हें इन पंक्तियों से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ.
युगपुरुष चला गया, शून्य व्याप्त हो गया
मौत से रही ठनी, चली रही तनातनी
काल के कपाल पर, चल रही थी लेखनी
यकायक जीवन का ज्योति दीप बुझ गया
वक्त हुआ जाता है, साथ तुम्हें चलना है
राह नई, अनजाना पथ, साथ साथ बढ़ना है
मृत्यु तेरा आलिंगन आज मुझे भा गया
आ ही गई हो जब तुम, मृत्यु, मगर ये सुन लो
देह क्षीण हो चुकी है, राह मैंने खुद चुनी है
हार नहीं मानी है, बस मौन स्वीकृति दी है
मैं सहर्ष प्रस्तुत हूँ, चलो कहाँ चलना है
चिरनिद्रा की सजी सेज, सो गया रुला गया।
शत् शत् नमन, विनम्र श्र्द्धांजलि.
श्रीकृष्ण शुक्ल,
मुरादाबाद.
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