होली पर दिमागी चकल्लस : बुरा न मानो होली है
आज मुक्त दिवस है; पटल पर खामोशी है I
तो लीजिए एक बिना सिर पैर की हास्य रचना पढ़ लीजिए:
होली पर दिमागी चकल्लस : बुरा न मानो होली है
आजकल किसी कवि सम्मेलन का संयोजन करना हो तो ये ख्याल रखना पड़ता है कि दो तीन हास्य व्यंग के कवि अवश्य बुलाए जाएं, ताकि श्रोताओं की दिलचस्पी बनी रहे। वस्तुतः आजकल श्रोताओं की रुचि कविताओं और गीतों में कम होती जा रही है, थोड़ा बहुत आकर्षण हास्य व्यंग की कविताओं का शेष है।
हास्य कविता लिखना वास्तव में टेढ़ी खीर है। आज के दौर में व्यक्ति अत्यधिक शुष्क और असंवेदनशील हो गया है, मनोविनोद तो जीवन में मानो समाप्त हो गया है। इसीलिये व्यक्ति के तनावग्रस्त मस्तिष्क को हँसने की स्थिति तक ले आना वास्तव में काम तो मुश्किल ही है। यही वजह है कि हास्य कवि अधिकतर चुटकुले सुनाते हैं, या चुटकुलों पर आधारित रचनाएं बनाते हैं। आजकल अधिकतर हास्य रचनाएं छंदमुक्त, गद्यात्मक शैली में होती हैं। हास्य रचनाओं में प्रस्तुतिकरण भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि कहने के ढंग से भी हास्य उत्पन्न होता है। हमने हुल्लड़ मुरादाबादी जी की तमाम रचनाएं सुनीं हैं। वह इस शैली के मास्टर थे। यद्यपि पहले हास्य कवि भी छंदबद्ध लेखन ही करते थे तथा खूब हँसाते थे। श्री गोपाल व्यास तथा काका हाथरसी छंदबद्ध हास्य कविताएं ही करते थे। यद्यपि गोपाल व्यास जी गद्य व्यंग लेखन में भी सिद्ध हस्त थे और हिंदुस्तान अखबार में उनका कॉलम 'यत्र तत्र सर्वत्र' अत्यंत रोचक होता था।
एक हास्य कवि को हास्य की उत्पत्ति के लिये माध्यम भी ढूँढना पड़ता है। माध्यम ऐसा हो जो किसी जाति या वर्ग विशेष की भावनाएं आहत न करता हो, अन्यथा चुटकुलों में तो सरदार जी का ही वर्चस्व रहता है, लेकिन कवि तो मंच पर खड़ा होकर रचना पढ़ता है, यदि कोई वर्ग आहत हो गया तो वहीं निपटा देगा। हाँ इसके बावजूद कविगण नेताओं या पुलिस पर हास्य रचना प्रस्तुत कर देते हैं इसकी वजह है। नेता या पुलिस इस तरह सबके सामने नहीं निपटा सकते। इसलिये बरबस मुस्कुराते रहते हैं, बल्कि नेता तो खुश होते हैं कि चलो हमारा नाम तो आया, चर्चा तो हुआ, इतनी जनता के बीच। बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा।
अधिकांश कवि रचना पढ़ने के स्थान पर विभिन्न सामयिक घटनाओं और परिस्थितियों का घालमेल करके तमाम राजनीतिक और गैर राजनीतिक शख्सियतों से जोड़कर चुटकुले के रूप में श्रोताओं से संवाद करते हैं और हास्य उत्पन्न करते हैं। इन प्रस्तुतियों में संवाद अधिक होते हैं और कविताएं कम। तमाम संचालक गण भी इन्हीं संवादों का सहारा लेकर अपना संचालन चमकाते हैं। कुछ कवि तो केवल संवादों से ही काम चला लेते हैं और लिफाफा भी तगड़ा ले जाते हैं। ऐसे कवियों को सुनते हुए श्रोता संवाद तो सुनते ही रहते हैं, और हँसते भी रहते हैं और इंतजार करते रहते हैं कि कविता अब शुरु होगी, अब शुरु होगी, किंतु इंतजार खत्म नहीं होता कवि जी की प्रस्तुति खत्म हो जाती है। इस संवादों की शैली में एक सहूलियत ये भी है कि कोई भी कवि कभी भी किसी भी कार्यक्रम में एक ही संवाद कर सकता है। इसमें कोई कवि ये नहीं कह सकता कि तूने मेरी कविता चुरा ली। भला संवाद पर भी किसी का कापीराइट होता है। यदि ऐसा होता तो आज गली मुहल्लों में, आपसी संवादों में जितने श्रांगारिक विशेषण युक्त संबोधन अथवा गालियां चलती हैं, उनका उपयोग करने से पूर्व हजार बार सोचना पड़ता।
लेकिन इन सबमें सर्वाधिक सुरक्षित है स्वयं को ही हास्य का विषय बना लेना। और जब व्यक्ति स्वयं को हास्य का विषय बना लेता है तो निष्चित ही इस प्रसंग में कवि पत्नी अवश्य माध्यम बन जाती हैं।
हास्य के दिग्गज श्री सुरेंद्र शर्मा जी ने स्वयं और पत्नी जी की इस कैमिस्ट्री से लोगों को भरपूर हँसाया और माल कमाया, और निस्संदेह घर जाकर सब कुछ पत्नी को सौंपते रहे होंगे, अन्यथा एक बार के बाद दुबारा मंच पर न आ पाते।
इसीलिये मैंने भी सोचा क्यों न हास्य कवि बन लिया जाए, एक छोटा सा बेढंगा सा उपनाम रख लिया जाए। हुल्लड़, कुल्हड़, ढक्कन, मक्खन सब बेढंगे हैं। इनमें मक्खन नाम अलग है, वह बेढंगा नहीं, बल्कि कोमल है मृदु है और सर्वाधिक विशेष इसलिये भी है कि हमारे मार्गदर्शक भी मक्खन जी ही हैं। मक्खन कहीं भी किसी को भी कभी भी लगाया जा सकता है, जैसे कि मैं अब कर रहा हूँ।
ऐसे ही फक्कड़ मुरादाबादी को भी मैं बेढंगा नहीं कह सकता क्योंकि फक्कड़ का तो स्वयं ही कोई ढंग नहीं होता, वह तो बस फक्कड़ ही होता है। एक और कवि हैं लोटा मुरादाबादी। अब मुरादाबादी लोटे की विशेषता तो सभी जानते हैं। उसमें पेंदी नहीं होती, जिस वजह से वह इधर उधर लुढ़कता रहता है। लोटा जी भी कभी मुरादाबाद में दिखायी नहीं देते।
बेढंगा नाम भी बहुत सोच समझ कर रखना चाहिए।
हमारे एक मित्र थे। वह भी चुटकुलेबाजी करते थे। उन्हें भी हास्य कवि बनने का आइडिया आया। झटपट मक्खन जी से मुलाकात की। उन्होंने उन्हें टोस्ट मुरादाबादी का नाम दे दिया। अब जाहिर सी बात है जब मक्खन और टोस्ट का मिलन होगा तो क्या होगा। मक्खन तो खैर थोड़ा सा ही लगता है, लेकिन टोस्ट समूचा ही उदरस्थ हो जाता है। इसीलिये बेचारे जल्दी ही कविता को प्रणाम कर गये, और मक्खन जी आज तक भलीभांति चल रहे हैं।
उस वक्त ही मैंने भी सोचा कि अपना उपनाम चायवाला रख लेता हूँ। लेकिन रचनाओं के काफिये में चायवाला कहीं फिट नहीं बैठ रहा था, इसलिये छोड़ दिया। मुझे क्या पता था चायवाला कितना महत्वपूर्ण उपनाम हो सकता था।
मैंने छोड़ा तो मोदी जी ने पकड़ लिया। अब मैं यही सोचता हूँ कि कोई मोदी जी तक इतनी बात तो पहुँचा ही दे। अब प्रधानमंत्री की कुर्सी तो घिर ही गयी है, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में कई कुर्सियां खाली होंगी। और कुछ नहीं तो एक आध एवार्ड तो दिलवा ही देंगे।
श्रीकृष्ण शुक्ल,
MMIG 69,
रामगंगा विहार,मुरादाबाद।
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