बेटी नहीं बहू

 बेटी नहीं बहू

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सुनो जी, आज खाना बाजार से ले आओ। मुझे चक्कर आ रहे हैं, बहुत कमजोरी हो रही है, सुषमा ने संतोष बाबू से कहा।

अरे, तो मैं लल्ला को फोन कर देता हूँ संतोष बाबू ने कहा। लल्ला उनका बेटा था जो शादी के बाद अलग मकान लेकर रहने लगा था।

अरे ना जी, उसे फोन मत करो, चार रोटी की ही तो जरुरत है, तुम होटल से ले आओ।

अच्छी बात है, कहकर संतोष बाबू थैला उठाकर चल दिये।

संतोष बाबू और सुषमा रिटायर्ड दंपत्ति थे। सुषमा को दो दिन से बुखार आ रहा था। दवाई चल रही थी। बुखार तो उतर चुका था लेकिन कमजोरी काफी थी।

थोड़ी देर में संतोष बाबू खाना लेकर आ गये और दोनों खाना खाने लगे।

एक थाली में दोनों का काम चल गया। दो दो रोटी और थोड़ा सा चावल, बस आयु के अनुसार इतनी ही भूख रह गयी थी दोनों की।

खाते खाते सुषमा ने संतोष से कहा, आप लल्ला को फोन करते, वो बहू से कहता। बहू के मूड का क्या पता। हो सकता है लल्ला भी होटल का खाना ही ले आता।

अब बेटे बहू का सुख भी भाग्य से ही मिलता है। हमने तो अच्छा परिवार देखकर बिना दहेज के बेटे की शादी की थी, बहू को जेवर कपड़ा भी खूब दिया, घर में बेटी समझकर ही प्यार भी दिया, लेकिन साल भर में ही, बहू तो बेटी न बन पाई, उल्टे बेटा भी बहू का ही हो गया, और न्यारा हो गया। अभी हम इतने अशक्त तो नहीं हैं कि स्वाभिमान खोकर बेटे के आश्रित हो जायें। घर का काम तो मैं अभी कर ही लेती हूँ। हाँ कभी कभी मन में टीस जरूर उठती है।

किसी ने सच ही कहा है कि माँ बाप मिलकर चार पाँच बच्चों को भी पाल लेते हैं, लेकिन सारे बच्चे मिलकर भी माँ बाप को नहीं पाल सकते।


श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।

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