दादा प्रोफेसर महेंद्र प्रताप : स्मृतियों में

 दादा प्रोफेसर महेंद्र प्रताप : स्मृतियों में


स्मृति शेष दादा महेन्द्र प्रताप जी से मेरा सर्वप्रथम साक्षात्कार  वर्ष 1967 में ही हुआ था। उस समय मैं हाईस्कूल का छात्र थाI  वस्तुत: दादा की बड़ी सुपुत्री वंदना जी हमररी बड़ी बहन के साथ प्रताप सिंह कन्या इंटर कालिज में पढ़ती थीं, दोनों मे मित्रता थी, व एक दूसरे के घर आना जाना रहता थाI  ऐसे ही अवसर पर जब दीदी वंदना दीदी के साथ उनके घर जाती थीं तो मुझे उन्हें लिवाने जाना पड़ता थाI मुझे स्मरण है जब मैं पहली बार कटरा नाज स्थित उस मकान में गया था तो दादा ने मेरी पढ़ाई के बारे में व परिवार के बारे में बात की थी, साथ में माताजी भी बैठीं थींI दादा का वह हँसता मुस्कुराता चेहरा आज भी मेरे मनस्पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हैI. 

तदुपरान्त एक बार रेलवे के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में संगीत व कवि गोष्ठी का कार्यक्रम था, वह कार्यक्रम मनोरंजन सदन में आयोजित हुआ थाI  उस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर दादा महेन्द्र प्रताप जी ने ही की थी, कवियों की संख्या अत्यंत सीमित थीI  उस कार्यक्रम में मैंने सर्वप्रथम उन्हें काव्यपाठ करते हुए सुना थाI उनका वह धीर गंभीर काव्य पाठ, गीत के भाव में पूर्ण तन्मयता से डूब कर काव्य पाठ करती उनकी छवि भी स्मृतियों में आज तक जीवंत हैI

यह मेरा दुर्भाग्य है कि जब मैंने लेखन कार्य प्रारंभ किया, उस समय मैं लगातार मुरादाबाद से बाहर ही रहा, और कभी ऐसा अवसर ही न आया जो उनसे भेंट हो पातीI

सेवानिवृत्ति के पश्चात 2013 में मुरादाबाद आया तब यहाँ की साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ सका, और उस समय विभिन्न अवसरों पर दादा की चर्चा होने पर पुरानी स्मृतियां याद आती रहींI

जहाँ तक दादा के साहित्यिक व्यक्तित्व व कृतित्व की बात है, उस संदर्भ में तो यही कहूँगा कि मुझ जैसा अदना सा लेखक उनके साहित्यिक व्यक्तित्व पर कुछ भी कहे वह सूर्य को दीपक दिखाने समान ही होगाI  वह मुरादाबाद के साहित्यिक क्षेत्र के वटवृक्ष थे, जिनकी छाया में तमाम साहित्यकार पुष्पित, पल्लवित हुएI। 

उनकी रचनाओं की कुछ पंक्तियों का यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ जो उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से परिचित कराने में स्वयं सक्षम हैं:

1.

ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ

एक बार जागे तो जागे

फिर न बुझाने से बुझ पाये,

जिसमें सुख की सत्ता डूबे

जिसमें सब दुख द्वंद समाये,

ऐसी जलन जगे शीतलता

जिसके पीछे पीछे डोले,

जिसको गले लगाकर तृष्णा

का मरुथल मधुवन बन जायेI

ऐसी प्यास कहाँ से लाऊँ?

2. 

गेय अगीत रहा

मैंने कितनी मनुहारें भेजी अगवानी में,

कितनी प्रीत पिरो डाली स्वागत की वाणी में,

पर प्यार की परिधि पार प्राणों का मीत रहा,

गेय अगीत रहा

3

ऐसी गाँठ बँधी जिससे

पिछले बंधन चुपचाप खुल गये

तरल ताप बह चला कि

मन के कल्मश अपने आप घुल गये


भाव, रस, छंद से परिपूर्ण उनके सभी गीत अत्यंत उत्कृष्ट हैं तथा उनकी विशिष्टता दर्शाते हैंI  यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि उनका साहित्य वर्तमान साहित्यकारों के लिये संपूर्ण विश्वविद्यालय हैI

इन्हीं शब्दों के साथ उनको स्मृतियों में नमन करता हूँ, और साहित्यिक मुरादाबाद के प्रशासक डा• मनोज रस्तोगी को ह्रदय से साधुवाद व्यक्त करता हूँI


श्रीकृष्ण शुक्ल,

MMIG -69,

रामगंगा विहार,

मुरादाबाद

मोबाइल:9456641400

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