बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे कीर्तिशेष ललित मोहन भारद्वाज जी

 बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे कीर्तिशेष ललित मोहन भारद्वाज जी

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कीर्तिशेष श्री ललित मोहन भारद्वाज जी से यद्यपि मेरा कोई परिचय नहीं था तथापि साहित्यिक मुरादाबाद के पटल पर उनकी रचनाओं को पढ़ने के पश्चात साहित्य व कला के क्षेत्र में उनके विराट व्यक्तित्व का परिचय मिलाI

उच्च स्तर के साहित्य सृजन के साथ साथ पत्रिका का संपादन व प्रकाशन, आकाशवाणी में एक्जीक्यूटिव के दायित्व का निर्वहन, थियेटर करना, साथ ही फिल्म में मुख्य भूमिका के रूप में अभिनय करना, ये सभी गुण उनके विलक्षण व्यक्तित्व को दर्शाते हैंI

यद्यपि उन्होंने मुक्तकों के साथ साथ तमाम गीत भी लिखे तथापि उनका प्रतिबिम्ब नामक एक ही संग्रह प्रकाशित हुआ  जो एक मुक्तक संगृह हैI इसके अलावा उनकी रचनाएं उन्हीं की पत्रिका प्रभायन के साथ साथ अन्य विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईंI


उनकी रचनाओं में उनके आध्यात्मिक चिंतन, तथा जीवन दर्शन का सहज परिचय मिलता हैI उनका मुक्तक संग्रह अध्यात्म, चिंतन और जीवन दर्शन से परिपूर्ण है,

इसके साथ ही श्रंगार रस का भी उनके गीतों में समावेश हैI

जीवन दर्शन पर उनकी निम्न दो पंक्तिया उनके चिंतन व व्यक्तित्व का संपूर्ण परिचय देती हैं:


साधना हूँ, सिद्धि हूँ, साधक स्वयं ही साध्य भीI

नित्य आराधक रहा हूँ, साथ ही आराध्य भीII


साथ ही नीचे उल्लिखित मुक्तक में उन्होंने बड़ी सहजता से जीवन में कर्मशील रहने के महत्व के साथ साथ जीवन और मृत्यु को परिभाषित किया है 


काल पत्रों पर बिलखती ओस सा गतिमान जीवन

मंच पर संसार के, संपूर्ण मात्र जीवन,

मृत्यु तो परिणति सुखद है, दुखद निष्क्रियता मनुज की,

मर्म की तो बात इतनी, कर्म का ही नाम जीवनI


साथ ही जीवन की नश्वरता और सांसारिक संबंधों की निरर्थकता तथा सृष्टि को केवल उस रचयिता का खेल दर्शाते हुए निष्काम जीवन जीने का संदेश दिया है:


हर सुबह की साँझ होती, रात का होता सवेरा,

कौन किसका काफ़िला है, कौन किसका है बसेरा,

सृष्टि के पीछे नहीं, उद्देश्य कोई, तथ्य कोई,

सिर्फ मन की मौज है, जो चित्र लिखता है चितेराI


उनके गीतों में मुझे वियोग का ये गीत बहुत अच्छा लगा


डोल गयी पुरबइया घटा फिर चली

और तुम नहीं----- और तुम नहीं

आँगन के बिरवे पर छाई मस्ती

अमवा की डाल डाल कोयल हँसती,

खोल दिये पावस ने वर्षा के केश,

बादल सी झूम उठी सारी बस्ती,

घूम गयी पहली बौछार हर गली,

और तुम नहीं----और तुम नहींI


उन्होंने माँ भगवती पर 108 मुक्तकों का भक्ति काव्य भी लिखा था।

जिसका अंतिम मुक्तक यह है....


माँ कमनीया जन कल्याणी, 

मुझ सा कौन अधम अज्ञानी?


फिर टूटी फूटी भाषा में, 

माँ मैंने वंदन की ठानी.. 

,

धन्य हो गया स्वीकृति पाकर, हुई सुपावन मेरी वाणी.. 


'ललित' पदों को मंत्र बनाना

भव्या माँ भगवती भवानी...!!


उनका ये मुक्तक देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्होंने इस मुक्तक के माध्यम से स्वयं के भावों को प्रकट किया हो:


आँखों ही आँखों में सब कुछ पी लूँ

खुशियों की गोट लगा सब कुछ सी लूँ

एक यही अभिलाषा मन में बाकी

मरने से पहले जी भर जी लूँI


ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व व उनके कृतित्व के विषय में जानकारी पाकर ह्रदय में गौरवानुभूति हो रही है और उनके प्रति मन श्रद्धा से नत हो जाता हैI


साहित्यिक मुरादाबाद के एडमिन डाक्टर मनोज रस्तोगी जी के प्रयासों से हमें मुरादाबाद के दिवंगत साहित्यकारों के व्यक्तित्व व कृतित्व का परिचय मिल जाता हैI उनके इस श्रमसाध्य कार्य के लिये उनका अतिशय धन्यवादI


श्रीकृष्ण शुक्ल,

MMIG - 69,

रामगंगा विहार,

मुरादाबादI

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