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Showing posts from August, 2025

जब तिगरी मेले में भैंसागाड़ी पलट गयी।

जब तिगरी मेले में भैंसागाड़ी पलट गयी। बात वर्ष १९८९ की है। उस वर्ष हमारा स्थानांतरण बिलासपुर (रामपुर) से कांठ (मुरादाबाद) शाखा में हो गया था। कांठ में बच्चों की पढ़ाई की अच्छी सुविधा न होने के कारण हमने परिवार को मुरादाबाद में अपने पैतृक मकान में ही रखा और खुद दैनिक आवागमन करना शुरू कर दिया। उस वर्ष गंगा स्नान के अवसर पर अचानक सपरिवार तिगरी जाने का कार्यक्रम बन गया। तिगरी मेले में हम अपने विद्यार्थी जीवन में लगभग प्रत्येक वर्ष जाते थे। उद्देश्य यही था कि पत्नी व बच्चों को भी एक बार तिगरी मेला दिखा दिया जाये।  सुबह 8.00 बजे हम सब रोडवेज की तिगरी मेला स्पेशल बस से चल दिये और लगभग 9.30 बजे मेले में पहुॅंच गये। सबसे पहले सीधे घाट पर पहुॅंचे और कपड़े उतार कर गंगा जी में कूद गये। बारी बारी से तीनों बच्चों को भी स्नान करवाया।  तीनों बच्चे छोटे ही थे। बिटिया तो केवल तीन वर्ष की थी। हमारे बाद पत्नी ने स्नान किया। स्नानादि से निवृत्त होकर थोड़ी ठीक ठाक जगह ढूंढकर खाना खाया और गंगाजल पीकर फिर नाव पर सवार होकर गंगा पार जाकर गढ़ का मेला घूमा।  मेले में श्रीमती जी की दिल...

गॉंव की बारात और बैलगाड़ी का सफर

गॉंव की बारात और बैलगाड़ी का सफर बात वर्ष 64-65 की है। हमारे पिताजी के बड़े ममेरे भाई बिलारी के पास गॉंव हजरतनगर गढ़ी में रहते थे। उनके बेटे के‌ विवाह में हमारा पूरा परिवार गया था। बारात गढ़ी से अन्य गॉंव में जानी थी। गॉंव की ही तमाम बैलगाड़ियों में सजे धजे बैल जोड़कर उन बैलगाड़ियों पर सवार होकर बारात अपने गंतव्य की ओर चल दी थी। हम जिस बैलगाड़ी में बैठे थे उसके चालक से धीरे-धीरे हमारी दोस्ती हो गई। बैलगाड़ी में बैठे बैठे ही उन्होंने हमें गाड़ी हॉंकना, नियंत्रित करना, मोड़ना व रोकना आदि, सब सिखा दिया और फिर बैलों की रस्सी हमारे हाथ में दे दी। हमने भी कभी तेज भगाकर तो कभी एकदम रोक कर खूब आनंद लिया। शाम होते होते हम लड़की वालों के गॉंव के पास पहुॅंच गये। गॉंव से लगभग एक किलोमीटर पहले से ही बारात की अगवानी में घरातियों के गॉंव की बैलगाड़ियां सजी धजी तैयार थीं। फिर गॉंव के बाहर बाहर ही बारी बारी से बैलगाड़ियों की रेस हुई। बैलगाड़ियों की अद्भुत प्रतिस्पर्धा का दृश्य हमारे लिये अनोखा था। खैर गॉंव में पहुॅंचने के बाद बारातियों को एक आम के बाग में ठहरा दिया गया।  हमारे लिये यह भी प्रथम...

दादा प्रोफेसर महेंद्र प्रताप : स्मृतियों में

 दादा प्रोफेसर महेंद्र प्रताप : स्मृतियों में स्मृति शेष दादा महेन्द्र प्रताप जी से मेरा सर्वप्रथम साक्षात्कार  वर्ष 1967 में ही हुआ था। उस समय मैं हाईस्कूल का छात्र थाI  वस्तुत: दादा की बड़ी सुपुत्री वंदना जी हमररी बड़ी बहन के साथ प्रताप सिंह कन्या इंटर कालिज में पढ़ती थीं, दोनों मे मित्रता थी, व एक दूसरे के घर आना जाना रहता थाI  ऐसे ही अवसर पर जब दीदी वंदना दीदी के साथ उनके घर जाती थीं तो मुझे उन्हें लिवाने जाना पड़ता थाI मुझे स्मरण है जब मैं पहली बार कटरा नाज स्थित उस मकान में गया था तो दादा ने मेरी पढ़ाई के बारे में व परिवार के बारे में बात की थी, साथ में माताजी भी बैठीं थींI दादा का वह हँसता मुस्कुराता चेहरा आज भी मेरे मनस्पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हैI.  तदुपरान्त एक बार रेलवे के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में संगीत व कवि गोष्ठी का कार्यक्रम था, वह कार्यक्रम मनोरंजन सदन में आयोजित हुआ थाI  उस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर दादा महेन्द्र प्रताप जी ने ही की थी, कवियों की संख्या अत्यंत सीमित थीI  उस कार्यक्रम में मैंने सर्वप्रथम उन्हें काव्यपाठ करते ...

बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे कीर्तिशेष ललित मोहन भारद्वाज जी

 बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे कीर्तिशेष ललित मोहन भारद्वाज जी —------------------------------------------------------––- कीर्तिशेष श्री ललित मोहन भारद्वाज जी से यद्यपि मेरा कोई परिचय नहीं था तथापि साहित्यिक मुरादाबाद के पटल पर उनकी रचनाओं को पढ़ने के पश्चात साहित्य व कला के क्षेत्र में उनके विराट व्यक्तित्व का परिचय मिलाI उच्च स्तर के साहित्य सृजन के साथ साथ पत्रिका का संपादन व प्रकाशन, आकाशवाणी में एक्जीक्यूटिव के दायित्व का निर्वहन, थियेटर करना, साथ ही फिल्म में मुख्य भूमिका के रूप में अभिनय करना, ये सभी गुण उनके विलक्षण व्यक्तित्व को दर्शाते हैंI यद्यपि उन्होंने मुक्तकों के साथ साथ तमाम गीत भी लिखे तथापि उनका प्रतिबिम्ब नामक एक ही संग्रह प्रकाशित हुआ  जो एक मुक्तक संगृह हैI इसके अलावा उनकी रचनाएं उन्हीं की पत्रिका प्रभायन के साथ साथ अन्य विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईंI उनकी रचनाओं में उनके आध्यात्मिक चिंतन, तथा जीवन दर्शन का सहज परिचय मिलता हैI उनका मुक्तक संग्रह अध्यात्म, चिंतन और जीवन दर्शन से परिपूर्ण है, इसके साथ ही श्रंगार रस का भी उनके गीतों में समावेश हैI ज...

होली पर दिमागी चकल्लस : बुरा न मानो होली है

 आज मुक्त दिवस है; पटल पर खामोशी है I तो लीजिए एक बिना सिर पैर की हास्य रचना पढ़ लीजिए: होली पर दिमागी चकल्लस : बुरा न मानो होली है आजकल किसी कवि सम्मेलन का संयोजन करना हो तो ये ख्याल रखना पड़ता है कि दो तीन हास्य व्यंग के कवि अवश्य बुलाए जाएं, ताकि श्रोताओं की दिलचस्पी बनी रहे। वस्तुतः आजकल श्रोताओं की रुचि कविताओं और गीतों में कम होती जा रही है, थोड़ा बहुत आकर्षण हास्य व्यंग की कविताओं का शेष है। हास्य कविता लिखना वास्तव में टेढ़ी खीर है। आज के दौर में व्यक्ति अत्यधिक शुष्क और असंवेदनशील हो गया है, मनोविनोद तो जीवन में मानो समाप्त हो गया है। इसीलिये व्यक्ति के तनावग्रस्त मस्तिष्क को हँसने की स्थिति तक ले आना वास्तव में काम तो मुश्किल ही है। यही वजह है कि हास्य कवि अधिकतर चुटकुले सुनाते हैं, या चुटकुलों पर आधारित रचनाएं बनाते हैं।  आजकल अधिकतर हास्य रचनाएं छंदमुक्त, गद्यात्मक शैली में होती हैं। हास्य रचनाओं में प्रस्तुतिकरण भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि कहने के ढंग से भी हास्य उत्पन्न होता है। हमने हुल्लड़ मुरादाबादी जी की तमाम रचनाएं सुनीं हैं। वह इस शैली के मास्टर थे। यद्यपि प...

दर्द और पीड़ा के गायक थे श्री राम अवतार त्यागी

 दर्द और पीड़ा के गायक थे श्री राम अवतार त्यागी -–------------------------------------------------ मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं ,  यह पंक्तियां हमने विभिन्न अवसरों पर न जाने कितनी बार सुनीं होंगी, यहाँ तक कि अन्य देशभक्ति गीतों की तरह ही, ये पंक्तियां भी हमें कंठस्थ हो गयीं, लेकिन इन पंक्तियों के रचयिता स्मृति शेष श्री राम अवतार त्यागी जी हमारे ही मंडल में ग्राम कुरकावली, सम्भल के रहनेवाले थे, यह तथ्य मुझे साहित्यिक मुरादाबाद के पटल पर श्री राम अवतार त्यागी जी के संबंध में यदा कदा चर्चाओं में ही ज्ञात हुआ I श्री राम अवतार त्यागी जी के बारे में साहित्यिक मुरादाबाद पटल पर ही उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चल रहे कार्यक्रम में विभिन्न साहित्यकारों के विचारों को पढ़कर उनके विराट व्यक्तित्व का परिचय हुआ I साहित्यिक मुरादाबाद पटल पर ही उनकी तमाम रचनाएं भी पढ़ने को मिलीं जिनसे उनके कृतित्व का आंशिक परिचय मिला, ये थोड़ी सी रचनाएं ही पर्याप्त थीं उनकी रचनाधर्मिता का परिचय कराने में I पटल पर उनकी जितनी रचनाएं पढ़ने को मिलीं वह उनकी उत...

गृहस्थी का मनोविज्ञान

 गृहस्थी का मनोविज्ञान सुनो जी, आज मेरे सर में बहुत दर्द है, बुखार सा भी लग रहा है। आज मुझसे कुछ काम नहीं होगा, सुनीता बिस्तर पर लेटे लेटे श्याम बाबू से बोली। अरे, कोई बात नहीं, तुम आराम करो, कहते हुए श्याम बाबू उठे, फटाफट चाय बनायी, टोस्टर में दो टोस्ट सेके और पत्नी के पास आ कर बोले : लो उठो, चाय पीलो, थोड़ा आराम आ जायेगा। दोनों ने मिलकर चाय पी। चाय पीकर श्याम बाबू ने पत्नी का ब्लड प्रेशर व बुखार नापा; सब कुछ नार्मल था। श्याम बाबू समझ गये कि अकेलेपन और हर वक्त काम करने के कारण सुनीता को मानसिक थकान है। कोरोना के कारण पिछले वर्ष से कहीं बाहर भी नहीं जा सके हैं, इसी कारण स्वभाव में भी चिड़चिड़ापन आ गया है। फिर भी प्रकट में वह बोले बुखार तो नहीं है, ब्लड प्रेशर भी नार्मल है, ऐसा करो एक क्रोसिन खा लो। दस बजे के बाद डाक्टर साहब से बात करके हाल बताकर दवाई लिखवा लेंगे, और हाँ, खाने की चिंता तुम मत करो, पंडित जी के होटल से स्पेशल थाली मंगवा लेंगे, एक‌ थाली में हम दोनों का काम चल जायेगा, कहते हुए वह पत्नी के पास ही बैठ गये और उसे क्रोसिन देकर आराम से लिटा दिया। थोड़ी ही देर बाद सुनीता उठ ग...

परिस्थितिजन्य व्यंग में हास्य उत्पन्न करनेवाले उत्कृष्ट कवि थे हुल्लड़ मुरादाबादी जी

 परिस्थितिजन्य व्यंग में हास्य उत्पन्न करनेवाले उत्कृष्ट कवि थे हुल्लड़ मुरादाबादी जी ––---------------–------------------------------------------- दूसरों को हँसाना एक पुण्य कार्य है I खुद कष्ट सहकर दूसरों को कहकहे बांटना बहुत बड़ी तपस्या है, साधना है, ये शब्द हुल्लड़ जी ने भाई पुनीत रस्तोगी को संबोधित पत्र में लिखे थे I  इन शब्दों से ही पता चलता है कि वह अपनी रचनाधर्मिता तथा हास्य व्यंग लेखन के महत्व व उसकी गुणवत्ता के प्रति कितने समर्पित थे I हुल्लड़ मुरादाबादी जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय मुरादाबाद के एक कवि सम्मेलन में ही हुआ था जहाँ मैं श्रोता की हैसियत से गया था, वस्तुतः मेरी काव्य यात्रा तब तक शुरु भी नहीं हुई थीI वह एक छोटी सी मुलाकात थी जो एक प्रशंसक और उसके चहेते कवि के बीच थीI किसी विशेष संवाद का अवसर ही नहीं थाI संभवतः यह 1971 या 72 का काल थाI उसी समय  हमारे सम्माननीय मक्खन जी का भी काव्य क्षेत्र में उदय हो चुका था I  तदुपरान्त फरवरी 1973 में, मैं बैंक की नियुक्ति पर मुरादाबाद से बाहर चला गया था I इधर हुल्लड़ जी मुंबई पहुँच गये थे I उस समय दूरदर्शन पर कवि स...

ओस की बूँदें : सामाजिक परिवेश पर एक शानदार हाइकू संग्रह ,I

 ओस की बूँदें : सामाजिक परिवेश पर एक शानदार हाइकू संग्रह ,I -------------------------------------------------------------------------- ओस की बूँदें यद्यपि आकार प्रकार में छोटी सी होती हैं किंतु सौंदर्य में अप्रतिम होती हैं, पत्ते पर पड़ी ओस की बूँद मोती का अहसास दिलाती है, घास पर पड़ी ओस पर नंगे पाँव चलने से उसकी शीतलता मस्तिष्क तक पहुँचती है I कुछ कुछ ऐसी ही अनुभूति आदरणीय अशोक विश्नोई जी के हाइकू संग्रह 'ओस की बूँदें'  पढ़ने पर होती है I हाइकू यद्यपि जापानी छंद है किंतु यह सूक्ष्म आकार का छंद ओस की बूँद की तरह ही अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम है I हाइकू केवल तीन पंक्तियों का वार्णिक छंद है, जिसमें विषम चरणों में पाँच वर्ण होते हैं तथा सम चरण में सात वर्ण होते हैं I  दोहों की तरह हाइकू भी काव्य की ऐसी विधा है जिसमें छोटी सी कविता में बड़ा संदेश दिया जा सकता है I श्री अशोक विश्नोई जी की इस पुस्तक में लगभग चार सौ हाइकू प्रकाशित हैं, जिनमें उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में विभिन्न परिस्थितियों पर सशक्त अभिव्यक्ति दी है, फिर चाहे वह सामाजिक हो, राजनीतिक हो, व्यक्तिगत व्यवहार प...

बेटी नहीं बहू

 बेटी नहीं बहू ----–---------- सुनो जी, आज खाना बाजार से ले आओ। मुझे चक्कर आ रहे हैं, बहुत कमजोरी हो रही है, सुषमा ने संतोष बाबू से कहा। अरे, तो मैं लल्ला को फोन कर देता हूँ संतोष बाबू ने कहा। लल्ला उनका बेटा था जो शादी के बाद अलग मकान लेकर रहने लगा था। अरे ना जी, उसे फोन मत करो, चार रोटी की ही तो जरुरत है, तुम होटल से ले आओ। अच्छी बात है, कहकर संतोष बाबू थैला उठाकर चल दिये। संतोष बाबू और सुषमा रिटायर्ड दंपत्ति थे। सुषमा को दो दिन से बुखार आ रहा था। दवाई चल रही थी। बुखार तो उतर चुका था लेकिन कमजोरी काफी थी। थोड़ी देर में संतोष बाबू खाना लेकर आ गये और दोनों खाना खाने लगे। एक थाली में दोनों का काम चल गया। दो दो रोटी और थोड़ा सा चावल, बस आयु के अनुसार इतनी ही भूख रह गयी थी दोनों की। खाते खाते सुषमा ने संतोष से कहा, आप लल्ला को फोन करते, वो बहू से कहता। बहू के मूड का क्या पता। हो सकता है लल्ला भी होटल का खाना ही ले आता। अब बेटे बहू का सुख भी भाग्य से ही मिलता है। हमने तो अच्छा परिवार देखकर बिना दहेज के बेटे की शादी की थी, बहू को जेवर कपड़ा भी खूब दिया, घर में बेटी समझकर ही प्यार भी दिया, ...

संतरा है या संतरी

 विगत 19 जुलाई को गीत ऋषि नीरज जी की पुण्य तिथि थी. नीरज जी के साथ का एक पुराना संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूँ: संतरा है या संतरी ---------------------- बात 1986 की है. रामपुर में हमने  सवेरा साहित्यिक संस्था की शाखा , आदरणीय कारेन्द्र देव त्यागी उर्फ मक्खन मुरादाबादी जी के सहयोग से बनाई थी. संस्था ने रामपुर में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन व मुशायरा आयोजित किया था. उसमें नीरज जी को भी बुलाया गया था. नीरज जी आदर्श कालोनी में ही अपने किन्हीं मित्र के यहाँ ठहरे थे. मुझे नीरज जी को कवि सम्मेलन स्थल तक लाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.  सम्मेलन प्रारंभ होने से लगभग एक घंटा पूर्व में वहाँ पहुँच गया. नीरज जी उस समय बाथरूम में थे और कवि सम्मेलन के लिए तैयार हो रहे थे. जब तक वो आते तब तक उस घर की गृहस्वामिनी चाय बना लाईं. चाय के दौरान ही थोड़ी देर में ही नीरज जी ने मेरा पूरा परिचय पूछ लिया, मैं बैंक अधिकारी हूँ, हिन्दी में लेखन करता हूँ आदि आदि. छोटी सी मुलाकात में बिल्कुल फ्रेंक हो गए. कार्यक्रम स्थल पर स्व शैलेन्द्र जौहरी भी मिल गए. हम तीनों की बातचीत चल ही रही थी कि अचानक नीरज जी बोले...

सपनों का शहर : एक पठनीय व रोचक लघुकथा संग्रह

 सपनों का शहर : एक पठनीय व रोचक लघुकथा संग्रह जीवन की आपाधापी में तमाम मोड़ ऐसे आते हैं जहाँ परिस्थितियाँ अप्रत्याशित होती हैं I कहीं सामान्य मानवीय व्यवहार के कारण तो कहीं मानवीय मूल्यों के क्षरण के कारण ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो हतप्रभ कर देती हैं I ऐसे ही घटनाक्रमों के कथानक को लेकर सूक्ष्मता से व प्रभावशाली ढंग से कम से कम शब्दों में व्यक्त करने की विधा है लघुकथा I जी हाँ , आज हम बात कर रहे हैं मुरादाबाद के लब्ध प्रतिष्ठ व वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय अशोक विश्नोई जी के लघुकथा संग्रह 'सपनों का शहर' की , जिसका लोकार्पण विगत 16 जुलाई को साहित्यिक मुरादाबाद के संयोजन में आयोजित अत्यंत भव्य कार्यक्रम में हुआ था I आदरणीय विश्नोई जी का यह दूसरा लघुकथा संग्रह है I उन्हीं के शब्दों में विश्नोई जी कहते हैं कि वो वही लिखने का प्रयास करते हैं जो समाज में घटित होता है - अर्थात जैसा देखा वैसा लिखा I उनके उपरोक्त कथन के अनुरूप ही इस संग्रह में सभी लघुकथाएं अपने आस पास के परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं पर ही आधारित हैं I लघुकथा पढ़ते पढ़ते लगता है कि ये तो हमारे संज्ञान में है, या ऐसी घटनाए...

दुनियादारी

 आज की लघुकथा गोष्ठी में मेरी प्रस्तुति: दुनियादारी -------------- शादियों के दिन थे। आज बड़ा सहालग था। श्याम बाबू की तबीयत जरा ढीली थी। दफ्तर से घर पहुँचकर वो सोफे पर निढाल से पड़ गये। थोड़ी देर में रमा चाय ले आई। आज तबीयत जरा ढीली है, खाने में कुछ हल्का बनाना, श्याम बाबू रमा से बोले। क्या; आज तो मैं कुछ नहीं बना रही। तीन तीन कार्ड आये हुए हैं। सभी जगह जाना भी पड़ेगा, और कम से कम पाँच पाँच सौ रुपये का लिफाफा भी देना पड़ेगा। नहीं जायेंगे तब भी बुराई होगी। ये सभी हमारे यहाँ बच्चों की.शादी में आये थे और हम तीनों से लिफाफे ले चुके हैं, रमा समझाने के अंदाज में बोली। बात तो तुम ठीक कह रही हो,  चलो मैं थोड़ा रैस्ट करता हूँ, फिर चलते हैं। मैं केवल मूँग की दाल ले लूँगा, लिफाफे देने भी तो जरूरी हैं, कहते हुए श्याम बाबू सोचने लगे, दुनिया कहाँ से कहाँ आ गई है। पहले शादी होती थी तो पूरे मुहल्ले वाले मिलजुल कर काम कराते थे मानो अपने घर में ही शादी हो। प्रत्येक व्यक्ति अपनी हैसियत के अनुसार उपहार देता था। अब तो सारी दुनियादारी एक लिफाफे में सिमट कर रह गई है। श्रीकृष्ण शुक्ल,  MMIG - 69, रामग...

मानवीय संवेदनाओं के कवि थे स्मृति शेष शचीन्द्र भटनाग

 मानवीय संवेदनाओं के कवि थे स्मृति शेष शचीन्द्र भटनागर जी. ______________________________________________ स्मृति शेष आदरणीय शचीन्द्र भटनागर जी से मेरी प्रथम भेंट मकर संक्रांति के दिन 14 जनवरी 2018 को हुई थी I जब विश्नोई धर्मशाला में राजभाषा हिन्दी प्रचार समिति के तत्वावधान में काव्य गोष्ठी थी, और उसी कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार डा• राकेश चक्र के काव्य संग्रह 'धार अपनी खुद बनाना' का लोकार्पण भी था I वह मंच पर थे I  कार्यक्रम के अंत में उनका सूक्ष्म संबोधन सुना, जो अत्यंत धीर गंभीर व सहज उद्बोधन था, समयाभाव के कारण उन्होंने एक दो मुक्तक ही सुनाये थे I कार्यक्रम समापन के पश्चात उनसे थोड़ा संवाद हुआ और पता चला कि वर्तमान में वह शांति कुंज हरिद्वार में रहते हैं I उस दिन मैंने जो रचना सुनायी थी उसमें भी आध्यात्मिकता का पुट था जिसके लिये उन्होंने मेरी सराहना भी की थी I तत्पश्चात उनसे भेंट तो नहीं हो सकी किंतु कोरोना काल में वह मुरादाबाद में, गौड़ ग्रेशियस कालोनी में अपने निवास पर आ गये थे, तथा विभिन्न संस्थाओं की आनलाइन गोष्ठिओं में उनसे संवाद होता रहता था I उन्हीं गोष्ठियों से उ...

विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी थे स्मृति शेष पुष्पेंद्र वर्णवाल जीI

 विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी थे स्मृति शेष पुष्पेंद्र वर्णवाल जीI ----------------------------------------- स्मृति शेष आदरणीय पुष्पेंद्र वर्णवाल जी का मुझसे परिचय 2018 में हुआ था I वह साहित्यिक मुरादाबाद में शामिल हुए थे, किंतु उनके व्हाट्सएप पर उनका नाम उमेशपाल वर्णवाल लिखा था I एक बार साहित्यिक मुरादाबाद पर ही मेरी एक रचना पर उनका अच्छा सा कमेंट आया, मैंने भी धन्यवाद लिख दिया, क्योंकि उमेशपाल वर्णवाल नाम से मैं उन्हें पहचान नहीं सका था I फिर उनका फोन आया: मैं पुष्पेंद्र वर्णवाल हूँ, मैंने तुरंत प्रणाम किया और कहा आदरणीय आपको कौन नहीं जानता, हाँ मैं आपके दूसरे नाम से नहीं जानता था, बोले आप अच्छा लिख रहे हैं, कब से लिख रहे हैं, मैंने भी  उन्हें बता दिया कि वर्ष 84 से लिख रहा हूँ किंतु 87 के बाद व्यवधान आ गया और सेवानिवृत्ति के बाद अब 2016 से पुन: सक्रिय हुआ हूँ , मुरादाबाद में सहजयोग का भी अगुआ रहा हूँ, इस पर उन्होंने कहा आपकी रचना में आपकी आध्यात्मिकता का प्रभाव हैI वह रचना थी  'तन भी नश्वर मन भी नश्वर, सोच जरा फिर तेरा क्या है' फिर उन्होंने अपने आध्यात्मिक व्यक्तित्व क...

जब कानों में सीटियां बजने लगीं

 संस्मरण: जब कानों में सीटियां बजने लगीं बात तब की है जब हम कक्षा 9 में पढ़ते थे  I घर में नयी नयी बिजली लगी थी, उस समय हर कमरे, बराम्दे आदि में छत से टंगी डोरी में होल्डर लटका कर उसमें बल्ब लगा दिया जाता था और दीवार में काले रंग का स्विच होता था I हमने विज्ञान में पढ़ा तो बहुत था कि अगर विद्युत प्रवाह के संपर्क में आ गये और कहीं से भी अर्थ हो गया तो करंट लगता है और चिपका लेता है।  हमारी बालक बुद्धि ने इसका प्रयोग करने की योजना बनायी।  बराम्दे में एक लकड़ी का डेस्क रखा था उस पर खड़े हो गये और बटन आन करके उंगली होल्डर में डाल दी, और जो जोर का झटका लगा तो तुरंत डेस्क से छलांग लगा दी। लेकिन सर भन्ना गया और देर तक कानों में सीटियां बजती रहीं, और दिमाग की प्रत्येक खिड़की खुल गयी। बाद मे जब सीधे हुए तो दिमाग पर जोर डाला कि यार हम तो लकड़ी के डेस्क पर खड़े थे , कहीं से अर्थ तो हुआ नहीं था फिर झटका कैसे लगा, थोड़ी देर में ही जहन में आ गया कि हमने स्विच तो आन कर रखा था, और होल्डर में उंगली डालने से निगेटिव पाजीटिव दोनों मिल गये सो झटका लग गया। बहरहाल विज्ञान में जो पढ़ा था उस...

कविता या चुटकुले

 एक चिंतन मेरी ओर से भी: कविता या चुटकुले एक दिन एक कवि सम्मेलन में एक श्रोता  खड़ा होकर चिल्लाया ये क्या सुनाते हो आप,  ये कविता नहीं चुटकुले हैं, कल ही के अखबार में छपे हैं, उन्हीं चुटकुलों पर मुलम्मा चढ़ाते हो, और शान से मंच पर सुनाते हो, और लिफाफा भी तगड़ा ले जाते हो, जरा तो शरम करो यार कुछ तो ऐसा सुनाओ जिसमें राग रंग रस छंद नजर आये कविता में कुछ तो कवित्व नजर आये मैं थोड़ा सकपकाया, फिर चिल्लाया, जी हाँ, आप सच कह रहे हो, हम चुटकुले सुनाते हैं,  लेकिन भैय्ये सच तो यह भी है कि, आप भी तो चुटकुले ही सुनना चाहते हो, एक बार नहीं बार बार सुनते हो,  वन्स मोर वन्स मोर करते हो, और यदि हम गीत गज़ल या मुक्तक सुनाते हैं,  तो आप ही हमें हूूट भी करते हो, ऐसा नहीं है कि हम गीत गजल रस छंद नहीं लिखते हमारे संकलन तो देखो, उनमें तो यही सब हैं दिखते, यहाँ तो हम आपका विशुद्ध मनोरंजन करते हैं,  माल वही बिकता है जिसके खरीदार होते हैं, इसीलिए हम भी चुटकुले सुनाते हैं, किंतु इन्हीं चुटकुलों के बीच में  आपकी सोई चेतना को भी जगाते हैं, और भैय्ये निश्चिंत रहो, जिस दिन ये ...

जन जन के कवि थे स्मृति शेष श्री रामलाल अन्जाना जी

 जन जन के कवि थे स्मृति शेष श्री रामलाल अन्जाना जी -----------–--------------------------------- स्मृति शेष श्री रामलाल अन्जाना जी से मेरा कभी मिलना तो नहीं हुआ, बल्कि उनके बारे में जानकारी भी मुझे साहित्यिक मुरादाबाद के पटल पर ही मिली, वह भी तब मिली जब उनकी मृत्यु का समाचार मनोज जी ने पटल पर डाला था I  पिछले दो तीन दिन से पटल पर उनसे संदर्भित विषयवस्तु के अध्ययन से तथा उनके संदर्भ में पटल पर उपलब्ध सामग्री से उनके सीधे, सरल और उदार व्यक्तित्व के बारे में जानकर मन उनके प्रति श्रद्धा से नत हो गया I पटल पर उपलब्ध उनके चित्रों में उनकी  एक सरल, सज्जन, सहज व्यक्तित्व की झलक स्पष्टत: दृष्टिगोचर होती है I जीवन की  विषमताओं और तमाम झंझावातों के बावजूद अनवरत साहित्य सृजन में रत रहना भी उनके विलक्षण व्यक्तित्व का परिचय देता हैI उनका सृजन भी जीवन की व्यावहारिकता तथा विषम परिस्थितियों पर आधारित है, उनका पारिवारिक जीवन भी आसान नही रहा, जीवन की विषमताओं, दुरूह परिस्थितिओं, सामाजिक परिस्थितिओं पर ही मुख्यत: उन्होंने अपनी कलम चलाई है I उनके दोहा संगृह' दिल के रहो समीप 'से उद्धृत नि...

बेसहारों का सहारा

बेसहारों का सहारा भाइयो और बहनों, लोगों के जुटते ही श्याम बाबू माइक संभालते हुऐ बोले: जैसा कि आप जानते हैं कि इस समय ठंड अपने चरम पर है, हमारे शहर में तमाम निर्धन बेसहारा लोग ऐसे हैं जिनके पास ठंड से बचने को ढंग के कपड़े भी नहीं हैं, हमने निर्णय किया है कि संस्था की ओर से ऐसे लोगों को स्वेटर और कंबल वितरित किये जायेंI श्याम बाबू शहर की संस्था 'बेसहारों का सहारा ' के संस्थापक अध्यक्ष थे, आज उनके आह्वान पर संस्था की आपातकालीन बैठक बुलाई गई थी I  सभी लोगों की सहमति के बाद चंदा जुटाया गया और  बजट बनाया गया I घनश्याम जी ने कहा कंबल की खरीद मैं करवा दूंगा, मेरा एक कंबल बनाने वाली फैक्टरी के मालिक से परिचय है, वहाँ से बढ़िया कंबल मुनासिब दाम में मिल जायेंगे. अरे घनश्याम जी, उनकी बात काटते हुए श्याम बाबू बोले : कंबल तो कंबल ही होता है, बढ़िया के चक्कर में न पड़ें, बाजार से सस्ते कंबल खरीद लीजिए; आखिर पंडाल , साउंड सिस्टम, कैटरिंग का इंतजाम भी करना है, अतिथियों का सम्मान भी करना है, स्मृति चिन्ह भी देना है, मीडिया व प्रशासनिक अधिकारियों को बुला रहे हैं तो उसी के अनुसार सारी व्यवस्था कर...

सात जन्म के साथ का वरदान

 सात जन्म के साथ का वरदान  शादी की पचासवीं सालगिरह पर पति पत्नी ने घर में पूजा रखी, जैसे जैसे पंडित जी बोलते गये वैसे वैसे दान दक्षिणा रखी, उनकी श्रद्धा देख भगवान भी प्रसन्न हो गये,  तुरंत आकाशवाणी हुई और वर माँगने का मौका दिया, पति ने तुरंत सात जन्मों तक एक दूसरे का साथ माँग लिया, भगवान् ने कहा एवमस्तु , अगले सात जन्मों तक तुम्हें एक दूजे का साथ दिया यह सुनते ही पत्नी बोली भगवन ये क्या कर दिया,  ये वरदान है या सजा,  न कोई चेंज न मजा पूजा तो हम दोनों ने की थी, तो वरदान इनको ही क्यों दिया, पूजा की सारी तैयारी तो मैंने की, वेदी मैंने  सजाई,  प्रसाद मैंने बनाया,  पूजा की सारी सामग्री मैं लाई, यहाँ तक कि पंडित जी की दक्षिणा भी मैंने दी, इन्होंने क्या किया सिर्फ हाथ जोड़े, मस्तक नवाया, आरती घुमायी,  ये सब तो मैंने भी साथ में किया, फिर वरदान अकेले इनको क्यों दिया, अब मुझे भी वर दीजिए सात जन्म वाली स्कीम को वापस ले लीजिए, भगवान भी हतप्रभ हो गये, सोचने लगे, मेरी ही बनायी नारी, मुझ पर ही पड़ गयी भारी, बोले: एक बार वरदान दे दिया सो दे दिया,  दिया ...

जूतों की चोरी

जूतों की चोरी ये वर्ष 95 की बात है, दिसंबर का महीना था, ठंड भी खूब थी, दिल्ली में निजामुद्दीन स्थित स्काउट मैदान में सहजयोग का एक बड़ा आयोजन था, जिसमें हमारा जाना हुआ I उस बार संयोग से मैं अकेला ही वहाँ गया था, मुरादाबाद से एक दो अन्य भाई भी गये थे लेकिन हमें पहले से पता नहीं चल सका था।  जूता चप्पल चोर ऐसे आयोजनों में सूंघ सांघकर पहुँच ही जाते हैं, और संभवत: उन्हें मेरे जूते और चप्पलें अधिक पसंद आते होंगे, या उनके पाँव में मेरी ही चप्पल फिट आती होगी जिस कारण मेरी चप्पल अधिकतर चुर जाती थी I उस दिन ठंड के कारण मैं जूते पहनकर गया था, जूते लगभग नये ही थे, मैंने जूता चोरी से बचने के लिये एक तोड़ निकाला था जिसके अनुसार एक जूता पंडाल के एक खंबे के पास उतारा और दूसरा थोड़ी दूर पर दूसरे खंबे के पास उतारा, ताकि एक साथ रखे होने पर चुर न जायें I वस्तुत: ये राय भी हमें जूता चोरी से प्रताड़ित एक विशेषज्ञ ने ही दी थी I अंदर पंडाल में बहुत भीड़ थी जिस कारण बाहर भी जूते चप्पलों की बहुतायत थी İ कार्यक्रम रात्रि लगभग 11 बजे तक चला, कार्यक्रम के बाद जब बाहर आये तो हमारे जूते नदारद थे I निश्चित ही जूता...

गदहा ही काम आयेगा

 गदहे की सवारी ------------------- एक नेता जी ने एक गदहे को अपना वाहन बनाया चुनाव प्रचार में उसको गाँव गाँव में घुमाया गली गली में नेताजी वादों का पिटारा खोलते गये और अंतत: नेताजी चुनाव जीत गये  जीत के बाद गली गली में उनके अभिनंदन का कार्यक्रम शुरु हुआ नेताजी को फूल मालाओं से लादा जाने लगा साथ ही उनके गदहे को भी माल्यार्पण किया जाने लगा नेता जी तो थे ही खुश, गदहा उनसे भी अधिक खुश धीरे धीरे नेताजी के हाल चाल बदल गये, उधर गदहे की चाल भी बदल गयी नेताजी पब्लिक को गरियाने लगे गदहा भी दुलत्ती झाड़ने लगा एक दिन धोखे से दुलत्ती नेताजी की टोपी उछाल गयी गदहे को तुरंत उसकी औकात बता दी  गयी नेताजी ने तुरंत उसको धकिया कर बाहर निकलवा दिया और अपने लिये एक खूबसूरत घोड़ी का इंतजाम कर लिया अब गदहा रोज भीड़ के बीच में रेंकता है, ससुरा मेरी पीठ पर, मेरे बलबूते इतना बड़ा नेता बन गया और चुनाव जीत कर मुझी को ठग गया खुद घोड़ी की सवारी करता है और जिसने उसे नेता बनाया उसे गदहा समझता है।  ये भी भूल बैठा है कि एक दिन फिर चुनाव आयेगा और उस वक्त कोई घोड़ा या घोड़ी नहीं,  ये गदहा ही काम आयेगा...

दादाजी के पोते

दादाजी के पोते दादाजी के नाती पोते, रोज इकट्ठे होते दिन भर उछल कूद करते हैं,  और रात भर सोते शोर शराबा हल्ला गुल्ला, वो दिनभर करते हैं दादाजी की डाट डपट को, भाव नहीं देते हैं छड़ी उठाते जब दादाजी, तब जाकर चुप होते दादा दादी ने मिलकर फिर, रस्ता एक निकाला लूडो, कैरम लाकर सबको, शगल नया दे डाला बच्चों में बच्चे बनकर फिर, खेले दादा पोते जानबूझ कर दादा दादी, रोज हारते रहते और जीत कर छोटू, चुन्नू, उन्हें चिढ़ाया करते बच्चों को खुश देख स्वयं दादा दादी खुश होते! श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG -69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद! 12.10.2021

बाढ़ के बीच दो दिन

 रामगंगा चढ़ी हुई है, बाढ़ का एलर्ट है।  ऐसे में प्रस्तुत है बाढ़ के अनुभव का संस्मरण।  बाढ़ के बीच दो दिन ------------------------- वर्ष 2010 की बात है।  18 सितंबर शनिवार को सायं 4 बजे से तेज बारिश की झड़ी लग गयी।  उस समय मैं बिधुना (औरैया) शाखा में नियुक्त था और मुरादाबाद आने के लिये कन्नौज बस अड्डे पर खड़ा था।  बस में यात्रा के दौरान भी निरंतर कभी तेज तो कभी मद्धिम वर्षा होती रही।  जैसे तैसे सुबह के 4.00 बजे मुरादाबाद घर पहुँचे।  उस समय भी वर्षा हो रही थी।  अगले दिन रविवार को हमारे नवजात पौत्र की छठी का आयोजन था। उस दिन भी पूरे दिन कभी तेज तो कभी छिटपुट बारिश होती रही। शाम को छठी के आयोजन के बाद मैं अपनी जीजी व जीजाजी को कार द्वारा उनके घर ( जो गंगा मंदिर के पास, किसरौल में रहते थे) छोड़ने गया। बारिश उस समय भी हो रही थी और जगह जगह सड़कों पर पानी भरा था।  उस दिन भी देर रात तक बारिश होती रही।  अगले दिन प्रातः आसमान साफ था। रामगंगा का जलस्तर निरंतर बढ़ रहा था, किंतु हमारे घर के सामने सड़क पर पानी नहीं था, जिस कारण हम निश्चिंत थे। इससे पूर्व भ...

स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1924 पर

 नागरिक समाचार साप्ताहिक के स्वतंत्रता दिवस अंक में मुख पृष्ठ पर छपा मेरा आलेख. स्वतंत्रता मिले बीत गए सत्तर साल  फिर भी बुरा है मेरे देश का हाल ================== श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद आज हम अपने देश की स्वतंत्रता की सत्तरवीं वर्षगाँठ मना रहे हैं. आज ही के दिन सन् १९४७ में हमारा देश स्वतंत्र हुआ था. अवाम में खुशी की लहर छा गई थी, लोगों में उम्मीद जागी थी कि अब अपना शासन होगा, जिसमें जिंदगी में सहूलियतें आएंगी, जुल्म समाप्त हो जाएंगे.  आज मुझे एक व्हाट्स ऐप ग्रुप पर सत्तर्र वर्ष पूर्व के दैनिक हिंदुस्तान का चित्र मिला. उसमें प्रमुखता से दो शीर्षक छपे धे.  पहला:  शताब्दियों की दासता के बाद भारत में स्वतंत्रता का मंगल प्रभात: बापू की चिर तपस्या सफल दूसरा:  जबतक जनता की आँख में एक भी आँसू की बूँद होगी हमारा काम पूरा नहीं होगा.  नेहरू लेकिन आज आजादी के सत्तर साल बाद भी जब हम समग्रता में देखते हैं तब पाते हैं कि आज भी हमारे समाज में बहुत विषमताएं व्याप्त हैं. जाति और धर्म के नाम पर वैमनस्यता हद से ज्यादा बढ़ गई है. अमीर और गरीब के बीच की खाई भी बहुत गह...

अटल जी के महा प्रमाण पर

 युगपुरुष चला गया ये संभवतः 1965-66 की बात है, मैं हाईस्कूल में पढ़ता था जब अटल जी मुरादाबाद आए थे. पहली बार अटल जी को मैंने तब ही सुना था. मैने बिल्कुल मंच के समीप बैठकर उनका भाषण सुना था. उनकी वक्तृत्व कला ने मुझे सम्मोहित सा कर दिया था. निरंतर धारा प्रवाह वाणी, शब्द मानो कविता के रुप में बह रहे थे, उनकी वो भाव भंगिमा और बीच बीच में मनोविनोद और चुटीला अंदाज, मेरे मन पर अंकित हो चुका था. उसके पश्चात तो मैं जब भी मुरादाबाद या उसके आस पास उनके आने की सूचना मिलती उन्हें सुनने जाता. संयोग से मेरा विवाह उस परिवार में हुआ जो जनसंघ से जुड़ा था. मेरी पत्नि उन्हें ताऊ जी कहती थीं. सन् 1972 में वह काशीपुर हमारी ससुराल में आए भी थे. हमारे श्वसुर साहब अक्सर उनसे जुड़े संस्मरण सुनाते रहते थे. अटल जी की कविताओं ने भी मुझे अत्यंत प्रभावित किया. उनकी कविताओं में देश प्रेम और हिन्दुत्व का संपूर्ण दर्शन समाहित था. भारत उनके लिए सिर्फ भूमि का टुकड़ा नहीं था बल्कि जीता जागता राष्ट्र पुरुष था, और हिन्दुत्व समस्त समाज की सेवा करने का माध्यम जिसमें व्यष्टि को समष्टि के लिए बलिदान कर देने की भावना है, मैं तो...