हमें श्री राम सरीखा बनना होगा।
हमें श्री राम सरीखा बनना होगा।
विजयादशमी का पर्व हम सभी ने धूमधाम से मनाया, इस पर्व को दशहरा भी कहा जाता है। यह पर्व बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व है। विजयादशमी के दिन ही श्री राम ने लंकेश रावण का वध किया था। वह लंकेश जो परम विद्वान था, वेद शास्त्रों का ज्ञाता महान पंडित, ब्राह्मण था, पृथ्वी पर सर्वाधिक बलवान था, जिसने नव गृहों को भी अपना बंदी बना लिया था, जिससे देवता भी भय खाते थे, भला उस रावण का वध करने की श्री राम को क्यों आवश्यकता पड़ी।
श्री रामचरितमानस में प्रभु श्री राम के जन्म के संदर्भ में लिखित एक दोहा ही रावण के वध के कारण को वर्णित करने के लिये पर्याप्त है। वह दोहा है:
विप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुण गो पार।।
उस समय पृथ्वी पर अत्याचारी दानवों का इतना आतंक था कि ब्राह्मण अपना पूजा पाठ भी नहीं कर सकते थे, रावण से संरक्षण प्राप्त राक्षस उनके यज्ञ विध्वंस कर देते थे, मारते पीटते थे, लूटपाट करते थे, सुंदर स्त्रियां भी सुरक्षित नहीं थीं। स्वयं रावण भी जिस पर मोहित हो जाता था उससे जबरन विवाह करना चाहता था। मयदानव की पुत्री मंदोदरी से भी उसने ऐसे ही विवाह किया था। संतजन, देवता व गोवंश भी सुरक्षित नहीं थे।
वस्तुतः रावण को अवतार प्राप्त था कि वह किसी मनुष्य के हाथों नहीं मर सकता। यही उसके अहंकार का मुख्य कारण था। शिव जी का वह परम भक्त था। आगे चलकर यह भक्ति भी उसके अहंकार का कारण बनी। अत्यंत बलशाली होने के चलते उसे अपनी शक्ति का भी अहंकार हो गया था। वह अपने आगे किसी की नहीं सुनता था। कुबेर से उसने पुष्पक विमान भी छीन लिया था। यही रावण जब बहन शूर्पणखा की दुर्दशा देखता है और उसकी इस दशा के पीछे राम और लक्ष्मण के बारे में सुनता है, और यह सुनता है कि वह दोनों वन में अपनी पत्नी सीता के साथ निवास कर रहे हैं, तब उसे सीता स्वयंवर का स्मरण हो आता है, जहॉं वह धनुष भंग करने में असफल हो गया था और सीता को प्राप्त करने की इच्छा मारकर अपमानित होकर लौट आया था। उसकी कुत्सित इच्छा पुनः बलवती हो गयी और वह सीता के अपहरण का जघन्य अपराध कर बैठा। यही श्री राम के द्वारा उसके अंत का कारण बना।
रावण के वध के साथ ही पृथ्वी पर से दानवों का आतंक समाप्त हो गया था। लंका का राजा विभीषण को बना दिया गया था और स्वयं श्री राम अयोध्या के राजा के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे। उन्होंने ऐसी राज्य व्यवस्था बनाई थी जिसका उपमा आज भी रामराज्य के रूप में दी जाती है।
श्री राम द्वारा रावण के वध के बाद से ही प्रतिवर्ष इस दिन हम दशहरा मनाते हैं, और रावण के पुतले बनाकर जलाते हैं, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।
ये तो हमारे पौराणिक इतिहास और परंपरा की बात हुई, लेकिन जब हम वर्तमान पर दृष्टिपात करते हैं तब पाते हैं कि हम केवल परंपरा का ही निर्वाह कर रहे हैं, क्योंकि ये सब बुराइयां तो आज भी हमारे समाज में व्याप्त हैं और पहले से भी वीभत्स रूप में व्याप्त है। रावण ने तो केवल सीता का अपहरण किया था, उनपर बल प्रयोग तो नहीं किया था। वह विवाह के लिये उनसे निवेदन करता था, मार डालने की धमकी भी देता था, लेकिन वर्तमान में तो जहॉं भी अकेली अबला नारी दिखाई देती है, किसी न किसी व्यक्ति में रावण से भी अधिक वीभत्स राक्षस जिंदा हो जाता है, यहाॅं तक कि पाशविकता की हदें पार करते हुए सामूहिक बलात्कार से भी ये नहीं हिचकते हैं। विप्रजनों, व संतजनों का निरंतर अपमान होता है, गोवंश आज भी असुरक्षित है, और देवताओं को तो स्वयं सनातनी भी उचित श्रद्धा से नहीं पूजते। बहुत से तो उनके अस्तित्व को ही नकार देते हैं।
क्या इन सब परिस्थितियों में दशहरे के दिन रावण का पुतला जलाकर हर्षित होने का कोई औचित्य है।
हमारे अंदर इन सभी रावणों के अंत करने का आक्रोश क्यों नहीं पनपता, अपनी बहन बेटियों व नारियों के अपमान पर हम क्यों चुप्पी साध लेते हैं। उस समय हमारे भीतर राम क्यों नहीं जागते। श्री राम तो इस संसार में साधारण मानव के रूप में ही आये थे, उन्होंने तो युद्ध में भी वानरों का साथ लिया जो स्वाभाविक रूप से मनुष्यों से कमजोर व कम बुद्धिमान माने जाते हैं। लेकिन सामान्य मानव के रूप में होते हुए भी, नगण्य संसाधन होते हुए भी, राज्य से निष्कासित होकर चौदह वर्ष से वनों में साधनहीन जीवन यापन करने के बाद भी राम पत्नी के अपहरण पर हताश या निराश होकर नहीं बैठे, सीता की खोज में लगे रहे, अपने जैसे निर्वासित वानर राज सुग्रीव का साथ लिया, और बाली का अंत कर सुग्रीव को राजा बनाया, फिर हनुमान की मदद से सीता का पता लगाया, लंका पहुॅंचने में सागर सबसे बड़ी बाधा थी, तब भी हिम्मत नहीं हारी और सागर पर भी सेतु बनाकर लंका पहुॅंचे और परम शक्तिशाली रावण का वध करके सीता को मुक्त करवाया।
आज हम सभी को श्री राम के चरित्र से उनकी उस जीवटता को सीखना होगा, वह साहस अपने अंदर जगाना होगा ताकि अपनी नारियों के अपमान पर हम दृढ़ता से जबाब दे सकें, हमें सामूहिक बनना होगा , जो हम आज नहीं हैं और जातियों में बॅंटे हैं। स्मरण रहे कि संगठित होने में ही वास्तविक शक्ति होती है। वानर दल संगठित थे तो बलशाली राक्षस भी उनसे भयभीत हो जाते थे, और अंततः राक्षस ही हारे। यदि हम संगठित होंगे तो दुनिया की कोई नकारात्मक शक्ति हमारी ओर ऑंख उठाकर नहीं देख सकती।
हम सबकी श्री राम के प्रति सच्ची श्रद्धा तभी होगी जब हम स्वयं के भीतर श्री राम के चरित्र को आत्मसात करेंगे। उनके जैसा साहस, उनके जैसी नेतृत्व क्षमता, उन जैसा एक पत्नीव्रती व्यक्तित्व, और उनके जैसी मर्यादाएं, पति पत्नी के व्यवहार की मर्यादा, पिता पुत्र की मर्यादा, भाई भाई की मर्यादा, राजा प्रजा की मर्यादा, ये हमें राम के जीवन से सीखने को मिलती हैं।
विजयादशमी पर रावण के पुतले जलाकर खुशियां मनाने का वास्तविक आनंद हम तभी अनुभव कर सकते हैं जब हम स्वयं राम सरीखा व्यवहार वास्तविक जीवन मे करना सीख जाएंगे, अन्यथा तो यह वृथा ढोल पीटने जैसा ही होगा।
आइए, तनिक इस दिशा में सोच कर देखें।
जय श्री राम।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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