सुनो जरा कविता कुछ कहती है

            सुनो जरा कविता कुछ कहती है

            जाने क्या क्या बातें करती है

            तेरे मेरे भीतर बाहर के

            सारे भाव उजागर करती है

            सुनो जरा कविता कुछ कहती है


            बातें जो आपस में होती हैं

            बातें जो मन में रह जाती हैं

            सुनी अनसुनी, कही अनकही भी

            ये सबको जगजाहिर करती है


            मन की पहुँच जहाँ तक होती है

            ये उससे भी आगे चलती है

            मन तो हार मान लेता है पर

            कलम निरन्तर चलती रहती है


            संसद के भीतर तक पहुँच गई

            झूठ मूठ की बातें बना गई

            पहले जबरन आकर गले पड़ी

            फिर आँखें झपकाया करती है

            सुनो जरा कविता कुछ कहती है.


            श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद


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