मानव मन के भावों के चित्रकार थे आनंद कुमार गौरव जी।
मानव मन के भावों के चित्रकार थे आनंद कुमार गौरव जी।---------------------------------------------------------
स्मृति शेष आनंद कुमार गौरव जी से मेरा पहला परिचय 5 वर्ष पूर्व हिन्दी साहित्य संगम की गोष्ठी में हुआ था। उसके कुछ समय बाद ही वह बीमारी के कारण सक्रिय नहीं थे। जब वह थोड़े स्वस्थ हुए तब उनके जन्मदिन के अवसर पर हस्ताक्षर द्वारा उनके सम्मान में उन्हीं के आवास पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें मैं भी सम्मिलित हुआ था। उसी गोष्ठी में उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का वास्तविक परिचय मिला। वह एक बैंककर्मी रहते हुए साहित्यिक क्षेत्र में सक्रिय थे और निरंतर उत्कृष्ट रचनाकर्म में लगे थे।
उक्त गोष्ठी में ही उन्होंने कुछ गीत सुनाए थे। अत्यंत सुंदर गीत, अत्यंत सुमधुर कंठ व ठहराव भरी आवाज में उनकी प्रस्तुति ह्रदय की गहराई से उतरती हुई प्रतीत हो रही थी।
गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, विविध छंद व अतुकांत रचनाओं के साथ साथ वह उपन्यास भी लिखते थे। उनके
दो उपन्यास: ऑंसुओं के उस पार तथा थका हारा सुख प्रकाशित हुए हैं।
इसके अलावा गीत संग्रह 'मेरा हिन्दुस्तान कहॉं है, और कविता संग्रह 'शून्य के उस पार' प्रकाशित हुए हैं।
उनकी कविताओं व गीतों में सामाजिक विषमताओं के साथ साथ व्यक्तिगत भावनाओं, और अन्य तमाम परिस्थितियों पर उनकी लेखनी प्रभावपूर्ण ढंग से चली है।
उनका रचनाकार मन समाज में समरसता ढूंढता रहता था। तभी तो उन्होंने लिखा:
द्वेष क्लेश मिट जाएं ऐसा गीत रचें।
मैं, तुम, हम हो जाएं, ऐसा गीत रचें।
व्यक्ति की मनःस्थिति और शारीरिक स्थिति में यदा कदा तालमेल न होने की दशा को उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता और सहजता से इन पंक्तियों में अभिव्यक्त कर दिया:
मन टॅंगा है अलगनी पर,
देह की लय अनमनी है।
इसी प्रकार समाज में शोषण व दमन कारी प्रवृत्तियों के विरोध में वह आह्वान करते हैं:
शब्द को तलवार होना चाहिए,
अर्थ को अंगार होना चाहिए
बेचता है जो अंधेरे गॉंव को,
खत्म वह बाजार होना चाहिए।
पारस्परिक संबंधों पर कहने सुनने और समझने में जो भ्रांति होती है, उसको इंगित करते हुए वह कहते हैं:
मैंने तो महके गुलाब से भरा हुआ पौधा सौंपा था,
हाथ तुम्हारे कांटों तक ही रहे, दोष इसमें क्या मेरा।
समाज में एक दूसरे के प्रति लगाव का अभाव व आस पास की घटनाओं व परिस्थितियों के प्रति अन्यमनस्यकता के भाव को इंगित करते हुए वह कहते हैं:
एक भगदड़ सी मची है,
शहर फिर भी शांत है
आज मानव के लहू का,
चुप रहो सिद्धांत है।
उपरोक्त सभी पंक्तियां उनके रचनाकर्म की उत्कृष्टता से भली भांति परिचित करवाते हैं।
वस्तुत: मानव मन के भावों के कुशल चित्रकार थे आनंद कुमार गौरव जी।
उनका असमय चले जाना वास्तव में साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है।
इन्हीं शब्दों के साथ उनकी स्मृतियों को नमन करता हूॅं।
साथ ही उनके व्यक्तित्व व कृतित्व से संबंधित इस चर्चा के आयोजन के लिये साहित्यिक मुरादाबाद व डा. मनोज रस्तोगी जी का भी ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूॅं।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
14.12.2024
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