मुफ्तखोर

 मुफ्त में मिल रहा है सब, यही तो मुश्किल है।

तुमने स्वयं ही इनको निकम्मा कर दिया।

माना अब रोटियां मुफ्त में मिलती हैं,

किंतु ऑंखें सपने देखना बंद कब करती हैं।

उनके सपनों में तो जन्नत के ख्वाब पलते हैं,

जो फेंके गये टुकड़ों से ही पूरे होते हैं,

बस जरूरत है कि कहीं से कोई टुकड़ा फेंके,

ये गिद्ध की तरह, टूट पड़ते हैं 

अपना दृष्टिकोण,बदल देते हैं

अपनी आत्मा, बेच देते हैं

जहॉं से सब मुफ्त में मिल रहा था,

उसी खजाने को, लूट लेते हैं 

काटना चाहते हैं उसी पेड़ को जड़ से, 

जिसकी छाया में निरंतर सुस्ताते थे,

जिसके फल तोड़ तोड़ कर खाते थे,

मुफ्त में।

लूट की प्रवृत्ति की कोई हद नहीं होती,

सच है, मुफ्त के माल की कोई कद्र नहीं होती,

इनका न कोई दीन है न ईमान है।

मुफ्तखोरी में ही इनकी जान है।


श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।


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