धार के विपरीत ही मैं तो सदा चलता रहा।

एक दर्पण रूप मेरे नित्य नव गढ़ता रहा।
मैं स्वयं की झुर्रियों के बिंब ही पढ़ता रहा।।

दौड़ता हरदम रहा लेकिन कहीं पहुँचा नहीं।
धार के विपरीत ही मैं.तो सदा चलता रहा।

ढूँढकर पदचिन्ह मेरे, छू चुके हैं जो शिखर।
मैं तो बस शुभकामनाएं ही सदा देता रहा।।

तुम जलाकर बत्तियाँ फोटो खिंचा कर चल दिये।
एक दीपक अँधेरों से रात भर लड़ता रहा।।

'कृष्ण' मंदिर में पहुँच, कंचन से तुम तो लद गये।
पर सुदामा द्वार पर ही ऐड़ियां घिसता रहा।।

श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।

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