जैसी करनी वैसी भरनी



दूर दूर तक धुआँ धुआँ है
दिन में ही अँधकार हुआ है
घोर कुहासे के बादल में
बेबस सूरज कैद हुआ है.

दृश्य सभी धूमिल दिखते हैं
चक्षु हारते से लगते हैं
कैनवास पर चित्र बने हों
दृश्य सभी ऐसे दिखते हैं

लेकिन जीवन कठिन हुआ है
प्राण वायु का ह्रास हुआ है
श्वास श्वास लेने को मानव
बना प्रकृति का दास हुआ है

नहीं प्रकृति की है ये करनी
ये सारी त्रुटियाँ हैं अपनी
जो बोया है वह काटोगे
जैसी करनी वैसी भरनी

अभी समय है खुद को बदलो
धूल धुँए को सीमित कर लो
रोपो वृक्ष बढ़ाओ जंगल
पुनः धरा को स्वर्ग बना लो

श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद.

Comments

Popular posts from this blog

आठ फरवरी को किसकी होगी दिल्ली।

ओस की बूँदें : सामाजिक परिवेश पर एक शानदार हाइकू संग्रह I

होली पर मुंह काला कर दिया