विद्या का मोल
विद्या का मोल
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पहले थे गुरुदेव, फिर कहलाये अध्यापक,
बदलती परिस्थितियों में अब साहब,संबोधन में भी परिवर्तन है आवश्यक,
इसीलिये अब वे कहलाते हैं शिक्षक।
मेरे पूज्य पिताजी कहते थे,
जब वो पढ़ने जाते थे,
गुरुदेव पहले पाठ पढ़ाते थे,
फिर घर का काम कराते थे,
कोई भी छात्र हो न जाये फेल,
इसीलिये घर पर भी क्लास चलाते थे।
जब मैं पढ़ने जाता था,
अध्यापक जी का हाल कुछ बदला था
कक्षा में तो पढ़ाते ही थे,
साथ में ये भी कहते रहते थे,
समझ में न आया हो तो घर आ जाना, समझा दूँगा,
औरों से पचास लेता हूँ, तुमसे तीस लूँगा।
अब मेरा बेटा कहता है,
विद्यालय में कौन पढ़ाता है,
विद्यालय में शिक्षा के लिये समय कहाँ होता है,
पहले दो माह में एडमीशन,
फिर होते हैं चुनाव,
फिर स्पोर्ट्स,
फिर हड़ताल में माँगों का मोल भाव,
फिर वार्षिक समारोह, मिलती है दीक्षा,
फिर आ जाती है परीक्षा।
विद्यालय में कहाँ समय है, कब दें शिक्षा।
छात्रों का भविष्य अंधकार में जाये,
शिक्षक यह नहीं सह सकता है,
विद्यालय में कक्षा लगे, न लगे,
घर पर तो विद्यालय चलता है।
कुछ पाने को कुछ खोना तो पड़ता है।
विद्या का मोल पैसों में लगता है।
शिक्षा का खुलेआम नीलाम होता है।
विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का कल्याण होता है।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
05.09.1985.

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