तटस्थ धर्मराज


तटस्थ धर्मराज

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वाह रे धर्मराज,

कलियुग में भी दिखा ही दिया अपना प्रभाव।

तब एक युधिष्ठिर थे,

यद्यपि धर्मराज कहलाते थे,

लेकिन उन्होंने घोर अधर्म किया

हारा हुआ राज्य फिर से पाने के लिये, 

द्रुपदसुता को ही दाँव पर लगा दिया।

उसकी लाज लुटती रही,धर्मराज तटस्थ बने रहे।

कलियुग में फिर  धर्मराज आ गये,

इस बार चुनाव आयोग के रूप में आये,

वायरस के संक्रमण का फैलाव भी उन्हें डिगा न सका,

लोग मरते रहे, आंकड़े बढ़ते रहे, रैलियां, रोड शो होते रहे, 

किंतुु धर्मराज तटस्थ रहे।

एक राज्य की विजय का सवाल 

आज भी धर्मराज से अधर्म करवाता रहा,

भीष्म, द्रोणाचार्य और विदुर, 

आज भी कुछ कहने का साहस न जुटा सके, 

और राजा तो तब भी धृतराष्ट थे, जन्मान्ध थे, 

आज भी धृतराष्ट सम ही हैं,

उन्हें कुछ दीखता ही नहीं,

उस समय द्रुपदसुता की लाज बचाने कृष्ण को आना पड़ा,

आज तो वह भी नहीं हैं कहीं,

हाँ न्याय के मंदिर से एक आवाज आयी तो है,

धर्मराज पर उँगली उठाई तो है।

लेकिन युद्ध तो आज अपने चरम पर है,

तब द्रौपदी ही एकमात्र पीड़ित थी,

आज समस्त प्रजा ही पीड़ित है, मर रही है।

जरा सोचो तो धर्मराज, विजयी तो तुम हो जाओगे,

किंतु जब प्रजा ही न रहेगी तो किस पर राज करोगे,

किस पर, हाँ किस पर।


श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।

26.04.2021

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