बाबरी गिरने की कहानी

 1.अशोक सिंघल जी

मंदिर में रामलला विराजमान करने के लिए पाँच लोग इकट्ठा हुए थे , महंत दिग्विजयनाथ , बाबा राघवदास ,  बाबा अभिराम दास, रामचन्द्र परमहंस और हनुमान प्रसाद पोद्दार। नानाजी देशमुख का नाम भी इसमे आता है पर उन्होंने न कभी इसे स्वीकार किया न खंडन किया।   महंत दिग्विजयनाथ सिसोदिया राजपूत थे , बप्पा रावल और महाराणा प्रताप के प्रत्यक्ष वंशज। उनके बचपन का नाम राणा नान्हू सिंह था। चाचा ने उनकी संपत्ति हड़पने के लिए मात्र सात वर्ष कि उम्र में नाथ योगी फूलनाथ को सौंप दिया था। और अफवाह फैला दिया कि उनका भतीजा मेले में खो गया है। किस्मत उन्हें गोरखनाथ  मंदिर ले आई। वहाँ उन्होंने एक ईसाई कॉलेज सेंट एंड्रूस से अपनी पढ़ाई की। अच्छा लॉन टेनिस खेलते थे और अंग्रेजी बोलते थे।  क्रांतिकारी साधु थे और चौरा-चौरी कांड में जेल भी गए थे। 

बाबा राघवदास पुणे के चित्तपावन ब्राह्मण थे , काँग्रेस के हिंदुत्ववादी धडे के प्रमुख नेता थे। 1948 मे अयोध्या मे विधानसभा का उपचुनाव होने वाला था। सोशलिस्टों के तरफ से आचार्य नरेंद्रदेव उम्मीदवार थे। फैजाबाद के मुसलमानों में उनकी मजबूत पकड़ थी। बाबा राघवदास ने पंडित गोविंद वल्लभपंत के इशारे पर उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया और परिणाम के दिन आचार्य नरेंद्र देव पैक हो गए। इसी चुनाव में बाबा राघवदास ने पहली बार अयोध्या मंदिर का मुद्दा गढ़ा और उसकी चुनावी मह्ता का सफल परीक्षण  कर दिया। 

रामचंद्र परमहंस छपरा के निवासी थे , उनके पिताजी का नाम भगेरन तिवारी था। सन्यास से पूर्व उनका नाम चंदरेश्वर तिवारी था। वह स्वयं आर्युवेदाचार्य थे। परमहंस रामकिंकर दास ने उन्हे अपना शिष्य बनाया और नाम दिया रामचन्द्र दास। वेद - उपनिषद आदि के मूर्धन्य विद्वान होने के अलावा वह अद्भुत साहसी आदमी थे। मंदिर का ताला खुलवाने के लिए उन्होंने आत्मदाह की घोषणा कर दी थी। सन 1990 में कारसेवको के जिस जत्थे पर गोली चली थी , उसको वहीं लीड कर रहे थे। 

गीतप्रेस बनाकर हिन्दू पुनर्जागरण कि परीसटहभूमि रचने वाले हनुमान प्रसाद पोद्दार हिंदू पुनर्जागरण के अकादमिक योद्धा थे। अपनी दूरदर्शिता से उन्होंने हिंदू मानसिकता को चैतन्य किया। 

पहली बार उन्होंने ही कल्याण पत्रिका मे रामजन्मभूमि का अंक छापा था। 

बाबा अभिरामदास गरीब मैथिल ब्राह्मण परिवार से थे और अनपढ़ थे। शरीर से अत्यंत बलिष्ठ थे, पचास की उम्र में पहलवानी करते थे। नागा थे।  हनुमान जी के अनन्य भक्त थे,  ऐसा कहा जाता था कि उन्हे हनुमान जी कि सिद्धि प्राप्त थी। अक्सर वह स्वप्न मे हनुमान जी को देखते थे , जो उनसे जन्मस्थान को मुक्ति दिलाने को कहते थे। 

इन्हीं पांचों ने जन्मस्थान पर रामलला कि मूर्ति विराजमान की थी। और यहीं से स्वतंत्र भारत के युगांतरकारी आंदोलन की बीज पड़ी। 

इन पाँच लोगों में से एक जन्मना क्षत्रिय , एक वैश्य और तीन ब्राह्मण थे। 

मगर इनके प्रयास इस विशाल काम के लिए ऊँट के मुँह में जीरा  थे। अगले चालीस बरस तक इस मुद्दे को मुख्यधारा में कोई स्पेस नहीं मिला। तब काशी हिंदू विश्विद्यालय से  इंजीनियरिंग की डिग्री लिए,  अत्यंत समृद्ध घर के एक नौजवान ने इसमे एंट्री ली। पिता ICS ऑफिसर थे। भाई सब नौकरशाह और बड़े बिजनेसमैन थे। 

उस लड़के का नाम  था अशोक सिंघल। समाज मे बनियों के डरपोक होने का  मिथक तोड़ते हुए उन्होंने अद्भुत साहस का परिचय दिया और देखते ही देखते राम-जन्मभूमि मुद्दे को राष्ट्रव्यापी आंदोलन बना दिया। 

मंदिर आंदोलन के शुरुआत कि पहली चिट्ठी तो बग़ैर संघपरमुख से आज्ञा लिए स्वयं अपने लेटरपड से जारी कर दिया था। राम के आंदोलन की उन्होंने पूरे देश पहुँचा दिया। कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे हिन्दू एक लक्ष्य और एक झंडे के नीचे खड़े हो गए 

विनय कटियार , उमा भारती , साध्वी ऋतंभरा, कल्याण सिंह जैसे कई हिन्दू सरदार उन्होंने देश के कोने कोने मे खड़े खड़े कर दिए। 

इसी तरह पहली बार हिन्दुत्व का मुद्दा द्विज जातियों और साधु संतों से आगे बढ़कर आम हिंदुओं तक पहुँच गया। उन्होंने रामानन्दियों के सामाजिक विमर्श को समझा और हिन्दुत्व के विचारधारा को उसी में समाहित कर दिया। 

इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया कि कि 400 सांसदों की सरकार  राजीव गांधी कांप गए। आंधी के तरह सत्ता मे आए वीपी सिंह महज एक वर्ष मे जड़ से उखड़ गए। और नरसिंहा राव को तो सरेन्डर ही करना पड़ गया। कांग्रेस हिन्दी पट्टी से साफ हो गई। केंद्रीय राजनीति संक्रमण काल में चली गई।

सिंगल आजीवन राममंदिर के लिए प्रयासरत रहें। उन्हें मोदी में वह योग्यता दिखी जो राममंदिर के स्वप्न को साकार कर सकता था। उन्हें जिताने के लिए उन्होंने जो बन पड़ सकता था किया। कर पुराने कार्यकर्ताओं - नेताओं को पुनः भाजपा में बुलाया और 2014 के जीत के लिए सक्रिय किया।

और मोदी जब PM बन गए तो उन्होंने बयान दिया कि पृथ्वीराज चौहान के बाद दिल्ली के गद्दी पर पहली बार कोई संप्रभु हिंदू शासक बैठा है। जब उन्हें विश्वास हो गया कि मंदिर का कार्य अब दूर नहीं तब उन्होंने 2015 में प्राण त्यागा। आज उनके देहावसान के मात्र दस वर्ष के अंदर भव्य राम-मंदिर बनकर तैयार है। 

मगर अफ़सोस कल VHP का पेज चेक किया। डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण की श्रद्धांजलि थी। गीता जयंती और शौर्य दिवस का पोस्टर भी था। लेकिन अपने ही नायक के लिए दो शब्द नहीं थे। वैसे भी क्या फरक पड़ता है। उन्होंने अपने नाम के लिए जीवन थोड़े ही होम किया था।


दूसरा आलेख:

**6 दिसंबर की वह रात**

अंधेरा गहराते ही रामलला की मूर्तियाँ लाई गई। और इस एक बात पर मैं आज भी आश्चर्यचकित हूँ कि जब ढाँचा बगैर किसी योजना के ढहाया जा रहा था, तो मूर्तियाँ सही सलामत कैसे बचा ली गईं। और उन्हें मलबे में से कैसे निकाल लिया गया।

वह 1992 के 6 दिसम्बर की रात थी। अयोध्या में श्रीरामजन्भूमि पर विवादित ढाँचे के आसपास तूफान के बाद की खामोशी का मंजर था। कार सेवक, पत्रकार, नेता और तमाशाई सब जा चुके थे। मगर कुछ शक्तियाँ अब भी अपने काम में चुपचाप लगी थीं। और इन शक्तियों के पीछे मैं भी चुपचाप एक गँवार देहाती की तरह लगा हुआ था। मेरे मन में उस समय यही विचार घूम रहा था कि अगर किसी को तनिक भी मेरी मौजूदगी और मेरे पत्रकार होने का भान हो गया, तो फिर मेरे लिए जान बचाना भी मुश्किल है। क्योंकि उस ढाँचे के गिरने के बाद भी सबसे रहस्यमयी, रोमांचक और नया इतिहास रचने वाली एक घटना वहाँ अब भी होने को थी। मैं चुपचाप रहकर उस रात के घुप्प अंधेरे और दाँतो को किटकिटा देने वाली ठंड में कुछ टिमटिमाते दीयों, लालटेन और टॉर्च की रोशनी में हिलती-डुलती मानवीय आकृतियों को किसी भुतहा हिंदी फिल्म के दृश्यों की तरह को डरते-सहमते देख रहा था। रामसे ब्रदर्स की भुतहा फिल्मों से लेकर हॉलीवुड की खतरनाक भुतहा फिल्मों को तीन घंटे देखना एकबारगी रोमांच का काम हो सकता है, मगर उससे भी ज्यादा खौफनाक दृश्य को एक बिन-बुलाए मेहमान की तरह देखना कतई भी साहस का काम नहीं था।

ढाँचे का मलबा कुछ साफ हो जाने पर मुझे दिखा कि वहाँ कुछ ही लोग बचे थे। तभी एक व्यक्ति को यह कहता सुनाई दिया, "अब रामलला की प्राणप्रतिष्ठा कर उनका विग्रह इस जगह पर स्थापित करना है और उसके आसपास ईंटों का या कपड़ों का घेरा बना देना है। नहीं तो, कल कोई अदालत जाकर स्टे लेकर आ सकता है, फिर हम रामलला को कहाँ बिठाएँगे?" ये सुनते ही मुझे भी अहसास हुआ कि मैं यह भूल ही गया था कि असली मुद्दा ढाँचा तोड़ना नहीं, बल्कि राम मंदिर बनाना है। मुझे लगा था कि अगले दिन यानि 7 दिसंबर की सुबह से राम मंदिर का काम शुरु होगा। पर यह तो अभी ही, रात के घुप्प अंधेरे में हो रहा था। लेकिन क्यों? यह जिज्ञासा पैदा होते ही कड़कड़ाती ठंड में भी मेरे शरीर में मानों गर्मी का संचार हो गया। मानों मेरे शरीर ने यह भान ही खो दिया कि मैं यहाँ सुनसान-सी जगह में, तीखी ठंडी हवा के बीच, बगैर गरम कपड़ों के ठिठुर रहा हूँ। पेशे का रोमांच और लक्ष्य पर टिके रहना क्या होता है; मैं पहली बार इसका अनुभव कर रहा था।

अब मैं भी पक्का कारसेवक बनकर इन परछाइयों का पीछा करता रहा। अंधेरा गहराते ही रामलला की मूर्तियाँ लाई गई। और इस एक बात पर मैं आज भी आश्चर्यचकित हूँ कि जब ढाँचा बगैर किसी योजना के ढहाया जा रहा था, तो मूर्तियाँ सही सलामत कैसे बचा ली गईं। और उन्हें मलबे में से कैसे निकाल लिया गया।

खैर, इधर कुछ साधुओं, पंडितों और कुछ कारसेवकों ने मिलकर रामलला के विग्रह की विधि-विधान से प्राण प्रतिष्ठा कर दी और तत्काल इसके चारों ओर ईंटो की एक छोटी-सी चारदीवारी बनाकर उसपर कपड़ा या कहें कि कनात बांध दी। वही कनात और कपड़ा आज तक राम लला की रक्षा करता रहा है। अजीब संयोग देखिये कि इधर तो रामलला की प्राणप्रतिष्ठा हो रही थी, और उधर फैजाबाद व अयोध्या की मस्जिदों से अजान की आवाजें आ रही थी। प्राणप्रतिष्ठा के मंत्रों, घंटियों और शंख आदि की ध्वनियों में अजान की आवाज़ भी घुल चुकी थी। ऐसा लग रहा था मानो रामलला की प्राणप्रतिष्ठा पर मस्जिदों से भी स्वस्ति वाचन हो रहा है।

इस बीच मेरे मन से उन हिलती-डुलती मानवीय आकृतियों का खौफ़ जाता रहा। वे मेरे पास प्रसाद लेकर आए और कहने लगे, "पक्के और सच्चे राम भक्त लगते हो, तभी तो इतनी ठंड में भी रामलला के दर्शन करने आए हो। तुम पहले दर्शनार्थी हो।" उनमें से एक के कहने पर वहाँ रामलला की आरती हुई। मैने भी आरती और प्रसाद ग्रहण किया।

थोड़ी ही देर में कुछ साधु-संत और शायद विश्व हिंदू परिषद या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता वहाँ और भी कुछ लोगों को लेकर आए और उनसे कहा कि अभी हममें से कोई भी यहाँ से नहीं हटेगा। अगर हम हट गए, तो पुलिस या सीआरपीएफ वाले मूर्तियाँ हटा देंगे। इसलिए सुबह तक हम यहाँ रामायण पाठ करेंगे। मैं भी रामायण पाठ करने वाले उन भक्तों में घुल-मिल गया। अब मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि मैं वहाँ से होटल की तरफ जाऊँ या तिरुपति और अयोध्या होटल में ठहरे पत्रकारों को बताऊँ कि यहाँ क्या हो रहा है।

धीरे धीरे वहाँ भक्तों की संख्या बढ़ने लगी और लगभग तीन-सौ से चार-सौ कारसेवक तथा स्थानीय भक्त वहाँ रामायण पाठ में जुड़ गए। ठंड से बचाने के लिए वहाँ अलाव भी जला दिए गए थे। इससे मुझे लगा कि अब रात भर यहीं रहना ठीक है। थोड़ी देर में प्रसाद के रूप में भोजन भी आ गया। शुध्द घी का खाना खाकर मुझे भी तृप्त हुई।

दिसंबर की ठंडी काली रात और आसमान में टिमटिमाते तारों के नीचे वहाँ खुले में रामायण का पाठ मेरे लिए एक अजीब और सिहरन पैदा करने वाला अनुभव था। बार बार मुझे लग रहा था कि यहाँ कभी भी कुछ हो सकता है। आखिर वही हुआ जिसका मुझे डर था। आधी रात होते ही एक आदमी ने मेरे पास आकर कहा, "तुम कहाँ से आए हो?" मैंने कहा, "उज्जैन से।" उसने पूछा, "तुम्हारे बाकी साथी कहाँ है?" "होटल में हैं", मैंने जवाब दिया। मैंने समझा कि वह मेरे पत्रकार साथियों की बात कर रहा होगा। लेकिन मेरा जवाब सुनकर उसने कहा, "हमने सब होटलें खाली करवा दी है और सबको स्टेशन भेज दिया है।" ये सुनकर मैं डर गया। पर उसने आगे पूछा, "तुम कितने लोग साथ आए थे?" मैंने कहा, "मैं तो अकेला आया था।" तो उसने कहा, "झूठ मत बोलो, पीछे देखो, हमने सब लोगों को स्टेशन भेज दिया है।" मैंने पीछे देखा तो आधे से ज्यादा लोग गायब थे। फिर उसने अपना परिचय देते हुए कहा, "हम सीआरपीएफ वाले हैं। तुम अपने साथियों को स्टेशन के साथ स्टेशन जाओ। हमने अपनी सीआरपीएफ की ट्रकों में भर-भर कर रातभर में सभी कारसेवकों को स्टेशन भेज दिया है, और उन्हें कहा है कि जिसे जो गाड़ी मिले, उसीसे चले जाओ, नहीं तो सुबह गोली चल सकती है।"

फिर मुझमें अचानक कहीं से हिम्मत आई, और मैंने उससे कहा, "मैं कार सेवक नहीं हूँ, पत्रकार हूँ। मैं तो शाम से यहाँ फँसा हूँ। मेरे साथी ढाँचा टूटते ही बिछुड़ गए और मैं यहीं रह गया।" इस पर वो मुझे पास के ही सीआरपीएक के कैंप में अपने वरिष्ठ अधिकारी के पास ले गया। उस अधिकारी ने मुझसे पूछा कि रात भर में यहाँ क्या हुआ, कौन कौन आया था। तो मैने कहा कि मैं तो खुद उज्जैन से आया हूँ, मैं यहाँ किसी को नहीं जानता। मेरी बातों से वो अधिकारी संतुष्ट नजर आया। उसने मेरे लिए चाय मंगवाई और कहा कि तुम हमारा एक काम करना। कोई कारसेवक कहीं छिपे हुए हों, तो हमें बताना, क्योंकि हम पूरे अयोध्या और फैजाबाद को बाहर के लोगों से खाली करवाना चाहते हैं।

चाय पीकर मैं वापस भजन गाने वालों के बीच बैठ गया। जैसे तैसे सुबह हुई। फिर भी मुझे लग रहा था कि यहाँ कुछ अनहोनी होने वाली है। मन में एक अजीब सा डर और रोमांच पैदा हो गया था। लेकिन अब जरा दिल थामकर बैठिये, इस जगह पर जहाँ रात भर कीर्तन भजन और रामायण का पाठ चला, वहाँ इतिहास अब एक नयी करवट लेने वाला था। इसका अंदाजा वहाँ मौजूद गिने चुने लोगों सहित मुझे और चारों ओर गिद्ध दृष्टि से हर एक को घूरते हुए पुलिस व सीआरपीएफ के जवानों को भी नहीं था।

अगली सुबह सात बजे के लगभग रामलला का पुजारी हाथों में पूजा की थाल, पूजा-सामग्री, घंटी-घड़ियाल और चिमटा आदि लेकर आया। उसने जैसे ही रामलला की ओर कदम बढ़ाए, वहाँ मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने उसे रोक दिया। उन्होंने उससे कहा कि वह मूर्तियों के पास नहीं जा सकता। वहीं जहाँ रातो-रात राम लला की मूर्तियों को कनात और कपड़े में ढंकने के साथ ही वहाँ दो-तीन फीट ऊंची दीवार भी बना दी गई थी। पुजारी ने उससे पूछते हुए कहा, "क्यों नहीं जा सकते? मैं तो रोज ठाकुरजी की पूजा और आरती करता हूँ।" तो इसपरसुरक्षा कर्मी ने कहा, "रोज करते होगे, पर आज तो वो हमारी निगरानी में हैं।" इस पर पुजारी ने कहा, "आप निगरानी करो, मैं तो पूजा करुंगा।" यह बहस बहुत तीखी हो रही थी। इस पर पुजारी ने चिल्लाकर कहा, "अगर मुझे पूजा नहीं करने दी, तो मैं शंख और चिमटे बजाकर अखाड़े वालों, साधु-संतों सबको बुला लाउंगा, फिर तुम जानना।" ये सुनकर वो सुरक्षाकर्मी घबरा गया। उसने कहा, "रुको! मैं अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात करता हूँ।" पुजारी ने कहा, "जल्दी करो, मेरी पूजा और आरती का समय हो रहा है।" उस अधिकारी ने वरिष्ठ अधिकारियों को वायरलैस सैट पर पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी। इस घटना ने ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी। थोड़ी ही देर में वरिष्ठ अधिकारी ने वायरलैस पर सूचना दी, जो कि मैने भी अपने कानों से सुनी। अधिकारी ने कहा, "दिल्ली बात हो गई है। वहाँ से कहा गया है कि पूजा और आरती में कोई विघ्न न डाला जाए।" यह सुनते ही पुजारी सहित सभी सुरक्षाकर्मी और दूसरे लोग खुशी से उछल पड़े। सबने इतनी जोर से जयश्री राम का नारा लगाया कि आसपास के पंछी तक पेड़ों से उड़ गए।

अगला दृश्य तो और भी रोमांचक था। पुजारी आरती कर रहा था, और जो सुरक्षा सैनिक पूजा करने से रोक रहे थे, वो अपने जूते और चमड़े के बेल्ट उतारकर आरती गा रहे थे। अंदर पूजा चल रही थी और बाहर सुरक्षा में लगे सैनिक गा रहे थे –

"भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी।

हरषित महतारी, मुनिमन हारी, अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा, निज आयुध भुजचारी।

भूषन बनमाला, नयन बिसाला, सोभासिंधु खरारी॥

ऐसा लग रहा था मानो तुलसी दासजी ने ये आरती और छंद इसी दिन के लिए ही लिखे थे। इस आरती के बाद सबने "श्री रामचंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम" गाकर पूजा का समापन किया।

लेकिन एक दृश्य देखकर मैं भी चौंक गया। जो सुरक्षा कर्मी पुजारी को आरती करने से रोक रहा था, उसकी आँखोँ से अविरल आँसू बह रहे थे, वह अपने साथी से कह रहा था, "आज मैं बहुत बड़े पाप से बच गया। अगर आज मेरी वजह से यहाँ आरती और पूजा नहीं होती, तो मैं किसी को मुँह दिखाने काबिल नहीं रहता।" उसका दूसरा साथी भी भीगी आँखों से उसे समझाने की कोशिश कर रहा था। मैने देखा कि सभी सुरक्षा सैनिकों की आँखें भीगी हुई थी और वे बार बार अपने आँसू रोकने का प्रयास कर रहे थे।

इधर आरती का समापन हुआ और थोड़ी ही देर में फैजाबाद के निलंबित जिलाधीश आर. एन श्रीवास्तव और एसएसपी डीबी रॉय भी वहाँ आ पहुँचे, दोनों ने प्रसन्न मन से राम लला के दर्शन किए।

अब आपको दो रहस्य और बता देना चाहता हूँ। पहला तो ये कि ढाँचे मलबे में से राम लला की मूर्तियाँ सुरक्षित कैसे निकाल ली गई। इसकी मैने खोजबीन की तो पता चला कि ढाँचे के टूटने का अंदेशा होते ही राम लला की मूर्तियों की सुरक्षा की व्यवस्था कर ली गई थी।

और आखिर में एक और चौंकाने वाली बात। सर्वोच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश सरकार और राम जन्म भूमि आंदोलन के नेताओं ने आश्वासन दिया था कि बाबरी मस्जिद परिसर में कोई निर्माण कार्य नहीं किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय की ओर से तत्कालीन गृह सचिव श्री वनोद ढाल को पर्यवेक्षक बनाया गया था। श्री विनोद ढाल सुबह से लेकर ढाँचा टूटने तक एक वीडियो कैमरा और दूरबीन लिए ढाँचे के बायीं ओर बनी सीतारसोई (ये भी एक महल जैसा भवन है।) की छत पर बैठे थे। श्री विनोद ढाल 1985 में उज्जैन के संभागायुक्त रह चुके थे और उनसे मेरी अच्छी दोस्ती थी। उनसे मैने पूछा की आपके सामने ही ढाँचा टूटता रहा और आप कुछ नहीं कर सके। तो उन्होंने चौंकाने वाला उत्तार दिया- मेरा काम ये देखना था कि यहाँ कोई निर्माण कार्य ना हो, टूटने के संबंध में मेरे पास कोई निर्देश नहीं थे।

तो ये है 1992 की रामकथा, जिसकी पटकथा श्री लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, साध्वी ऋतुंभरा, उमा भारती और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं ने लिखी थी। आज एक नई रामकथा शुरु हो रही है। और इसबार इसकी पटकथा लिखने की शुरुआत भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हाथों हो रही है।

**लेखक-चंद्रकांत जोशी**

**The Narrative World-06-Dec


तीसरा आलेख:

बाबरी गिरते ही शाम तक UP सरकार गिरी और 2017 तक UP मे बहुमत नहीं मिला व उसी दिन 4 BJP शासित राज्यों मे कॉंग्रेस ने राष्ट्रपति शासन लगाया

*मोदी जी और योगी जी खुल कर क्यों नहीं बोलते आज उसका उत्तर इस पोस्ट से मिल जाएगा। जिसके लिए हम उनके आभारी हैं। हिन्दुओं की कायरता और दोगलापंथी के कारण ही मोदी जी और योगी जी खुल कर नहीं बोलते हैं वो जानते हैं कि हिन्दू पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारता बल्कि कुल्हाड़ी पर अपना सिर ही मार लेता है।*

नब्बे के दशक में कल्याण सिंह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने, भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर को लेकर पूरे भारत में रथ यात्राएं निकाली थी।

उत्तर प्रदेश की जनता ने पूर्ण बहुमत के साथ कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश की सत्ता दी; यानी खुल के कहा की जाओ मंदिर बनाओ।

कल्याण सिंह बहुत भावुक नेता थे, सरकार बनने के बाद तुरन्त विश्व हिन्दू परिषद को बाबरी मस्जिद से सटी जमीन कार सेवा के लिए दे दी, संघ के हज़ारों कार सेवक साधू संत दिन रात उस जमीन को समतल बनाने में लगे रहते थे।

सुप्रीम कोर्ट ये सब देख के बहुत परेशान था, सर्वोच्च न्यायालय ने कल्याण सिंह से साफ़ कह दिया की आपको पक्का यकीन हैं ना की ये हाफ पैंट पहने लोग सिर्फ यहाँ की जमीन समतल करने आये हैं ?

मतलब की अगर आपके लोगों ने बाबरी मस्जिद को हाथ लगाया तो अच्छा नहीं होगा। कल्याण सिंह ने मिलार्ड को समझाया और बाकायदा लिख के एक हलफनामा दिया की हम लोग सब कुछ करेंगे लेकिन मस्जिद को हाथ नहीं लगायेंगे।

*तो साहब अयोध्या में कार सेवा के लिए दिन रखा गया 6 दिसंबर 1992 और केंद्र की कांग्रेसी सरकार से कहा कि केवल 2 लाख लोग आयेंगे कार सेवा के लिए लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने 5 लाख लोगों को कार सेवा के लिए बुला लिया प्रशासन को ख़ास हिदायत थी की भीड़ कितनी भी उग्र हो कोई गोली लाठी नहीं चलाएगा।*

5 लाख लोग एक जगह जुट गए जय श्री राम और मदिर वहीं बनायेंगे के नारे लगने लगे । लोगों को जोश आ गया और लोग गुम्बद पर चढ़ गए *5 घंटे में उस 400 साल पुरानी मस्जिद का अता पता नहीं था, ऐसा काम कर दिया एक एक ईंट कार सेवकों ने उखाड़ दी।* केंद्र सरकार के गृह मंत्री का फोन कल्याण सिंह के C.M. ऑफिस में आया,गृह मंत्री ने कल्याण सिंह से पूछा ये सब कैसे हुआ ?

कल्याण सिंह ने कहा की *"जो होना था वो हो गया अब क्या कर सकते हैं" ?*एक गुम्बद और बचा है कार सेवक उसी को तोड़ रहे हैं, लेकिन आप जान लीजिये कि मै गोली नहीं चलाऊंगा (ये वाकया खुद कल्याण सिंह ने एक भाषण में बताया है) उधर सुप्रीम कोर्ट में मिलॉर्ड कल्याण सिंह से बहुत नाराज थे।

*6 दिसंबर की शाम कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उधर काँग्रेस ने भाजपा की 4 राज्य की सरकार को बर्खास्त कर दिया, कल्याण सिंह को एक दिन की जेल हो गयी, केंद्र में नरसिम्हा राव जी सरकार थी; तुरंत में एक झटके से देश के 4 राज्यों में बीजेपी की सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया।*

*उत्तर प्रदेश में दुबारा चुनाव हुए, बीजेपी को यही लगा की हिन्दुओं के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी देने के बाद उत्तर प्रदेश की जनता उन्हें फिर से चुनेगी लेकिन हुआ उलटा।*

*बीजेपी उत्तर प्रदेश चुनाव हार गयी और फिर 2017 तक उसे पूर्ण बहुमत ही नहीं मिला। कल्याण सिंह जैसे बड़े और साहसिक फैसले लेने वाले नेता का कैरियर बाबरी मस्जिद विध्वंश ने खत्म कर दिया,*  400 साल से खड़ी किसी मस्जिद को 5 लाख की भीड़ से गिरवाने के लिए 56 इंच का सीना चाहिए होता है जो वाकई में कल्याण सिंह के पास था।

*आज हम कहते हैं की मोदी और योगी हिंदुओं के पक्ष में खुल के नहीं बोलते ना ही खुल के मुसलमानों का विरोध करते हैं, क्यों करें वो ये सब खुल के? ताकि उनका भी राजनैतिक कैरियर खत्म हो जाये।*

*आप बताइये की ऐसे स्वार्थी हिन्दू समाज के पक्ष में मोदी जी और योगी जी जैसे लोग खुल के कैसे बोलें क्या बोले और कहाँ तक इनके लिए लड़े ?*

अब किसान आंदोलन को ही देख लीजिए किस तरह से अंतरराष्ट्रीय साजिश के हाथों में कब्जे में था जिसको कोई हल नहीं चाहिये था। कोई धारा 370 खत्म कर सकता था नहीं बिलकुल भी नहीं। मोदी जी ने कर दिखाया। उसके बाद तो हिन्दू समाज को ऋणी होना चाहिए था लेकिन देख लो किस प्रकार से मोदी जी का विरोध हो रहा है।  अयोध्या में राम मंदिर बना तो बदले में मोदी जी 300 से 240 पर आ गए वाराणसी से अपनी सीट -हारते हारते बचे, ये लोग नहीं जानते कि ऐसा करके और मजबूत हो रहे है मोदी जी क्योंकि देश अब इतना जागरूक हो चुका है कि सारा खेल समझ रहा है।

*ये फैसला हमें करना है, हिन्दू समाज को करना है, अगले 50 सालों तक 2014 एवं 2019 जैसी राजनीतिक स्थिति को बरकरार रखना होगा तभी देश बचेगा। क्योंकि जब देश ही नहीं बचेगा तो क्या करोगे इन कानूनों का*।तभी आठ सौ सालों की गुलामी के दाग धब्बे धुल पाएंगे।

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