जिस वृक्ष की डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं हम लोग
जिस वृक्ष की डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं हम लोग
प्रत्येक वर्ष सितंबर के महीने का अंत होते होते जैसे ही मौसम में थोड़ी ठंडक शुरु होती है, वातावरण में धुंध और घुटन के कारण सांस लेना मुश्किल होने लगता है! सुबह को टहलने वाले लोग भी वातावरण में व्याप्त इस प्रदूषण के कारण परेशान होते हैं, यद्यपि वे स्वस्थ रहने के लिये टहलने निकलते हैं, लेकिन उल्टे बीमारी लेकर आ जाते हैं!
हैरानी की बात तो यह है कि अभी तक सरकारों ने इस प्रदूषण के कारणों पर कोई गंभीर चिंतन नहीं किया, न ही कोई कार्यक्रम चलाया, बस किसानों द्वारा खेतों में पराली जलाने, व दीवाली पर आतिशबाजी पर प्रदूषण का ठीकरा फोड़ा जाता रहा, जबकि अभी कुछ दिनों पूर्व ही हुए अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि प्रदूषण के कारकों में पराली के धुंए का योगदान नगण्य है! यही बात दीवाली की आतिशबाजी के संदर्भ में भी कही जा सकती है, क्योंकि उससे भी जो प्रदूषण होता है, वह केवल एक दिन के लिये होता है, जिसका प्रभाव अगले दिन तक समाप्त हो जाता है! खेतों में पराली जलाने का कार्य भी पंद्रह बीस दिनों चलता है! वैसे भी पराली तो मात्र सूखी पत्तियां हैं, सूखी पत्तियों के जलने से उत्पन्न धुआं जहरीला नहीं होता!
वस्तुत: इस प्रदूषण के असली कारक तो वह उद्योग हैं जिनकी चिमनियां रात दिन जहरीला धुंआ उगलती रहती हैं, अनधिकृत रूप से ई कचरा जलाने वाले लोग है, जो चोरी छिपे ई कचरा जलाते हैं, और न सिर्फ वायु को प्रदूषित करते हैं, बल्कि ई कचरे का वेस्ट नदी नालो में बहाकर जल को भी प्रदूषित करते हैं, कारक सड़कों पर हर वक्त हजारों की संख्या में दौड़ने वाली गाड़ियां हैं, जो न सिर्फ हवा में धुंआ छोड़ती हैं, बल्कि धूल भी उड़ाती हैं, कारक निर्माण इकाइयां भी हैं, जो बड़े बड़े भवनों के निर्माण में लगी हैं और निर्माण के दौरान उड़ने वाली अत्यधिक धूल को वातावरण में मिलाती रहती हैं!
वस्तुत: सरकारें और प्रशासन के लिये जिम्मेदार लोग प्रदूषण के असली कारकों की ओर से जानबूझकर अन्जान बने रहते हैं!
प्रश्न यह उठता है कि क्या स्थानीय प्रशासन और सरकारें प्रदूषण के इन महत्वपूर्ण कारकों के बारे में अनभिज्ञ हैं?
स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं है! जो तथ्य एक सामान्य व्यक्ति को ज्ञात हैं वह जिम्मेदार लोगों को ज्ञात न हों, यह संभव नहीं!
वस्तुत: ये सभी जिम्मेदार लोग इन तथ्यों की ओर से जानबूझकर अन्जान बने रहते हैं और पराली जलाने व पटाखों व आतिशबाजी पर प्रदूषण की जिम्मेदारी डालकर ध्यान भटकाने का ही कार्य करते हैं!
वस्तुत: इस उपेक्षा का कारण भी वोट बैंक की राजनीति, औद्योगिक घरानों से राजनीतिक पार्टियों को प्राप्त अकूत धनराशि व प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार ही है, जिसके कारण प्रदूषण के लिये जिम्मेदार लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं होती, कभी जब अधिक शोर मचता है तो एक आध जगह छुटपुट कार्रवाई कर दी जाती है, और फिर स्थिति जस की तस रहती है!
अभी पिछले दिनों छठ पूजा के अवसर पर दिल्ली में यमुना नदी के पानी में तैरने वाले झाग की तस्वीरें भी हमने देखीं! इन झागों की व्यापकता को देखकर ही समझा जा सकता है कि कितनी अधिक मात्रा में रासायनिक कचरा यमुना में छोड़ा जा रहा है! इस पानी से न जाने कितने शहरों में पेयजल की आपूर्ति की जाती होगी! क्या प्रशासन उनकी ज़िन्दगियों से खिलवाड़ नहीं कर रहा!
हमारे यहाँ कोई भी उद्योग लगाने के समय प्रदूषण विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होता है, जिसे समय समय पर रिन्यू भी करवाना होता है! क्या प्रदूषण विभाग के लोगों को यमुना में रासायनिक कचरे के निस्तारण की जानकारी नहीं होगी?
उनके कागजों में तो ये इकाइयां अपने रासायनिक वेस्ट को बाकायदा प्रदूषण निस्तारण संयंत्रों द्वारा शोधित करने के पश्चात ही यमुना में डाल रहे होंगे!
वस्तुस्थिति यह है कि प्रदूषण शोधन संयंत्र तो उद्योगों में होते हैं किंतु उनकी क्षमता बहुत कम होती है, जिस कारण तमाम गंदा पानी बिना शोधित किये ही नदियों में चला जाता है! यही कारण है कि गंगा नदी भी बरसों से चल रहे स्वच्छता अभियान व अरबों की धनराशि खर्च होने के बाद भी आज तक साफ नहीं हो सकी है. ये सब सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार का प्रतिफल है!
लेकिन अब यह प्रदूषण सभी के स्वास्थ्य पर असर डालने लगा है, आम आदमी तो इससे पीड़ित था ही, अब खास लोग भी इससे प्रभावित होने लगे हैं! यही कारण है कि अब प्रत्येक वर्ष इन दिनों में इस प्रदूषण के बारे में चर्चाएं होने लगी हैं, राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगे हैं, कहीं पेड़ों पर वाटर गन से छिड़काव किया जा रहा है, तो कोई पराली को रसायन के प्रयोग से समाप्त करने की बात कह रहा है, लेकिन आशा की किरण केवल सर्वोच्च न्यायालय की ओर से ही दिखाई देती है, जिसने इस मामले में रुचि लेकर केंद्र व दिल्ली सरकार को इस प्रदूषण से निपटने की पुख्ता व्यवस्था के लिये निर्देशित किया है!
साथ ही असली जिम्मेदारी तो नागरिक होने के नाते हम लोगों की भी है! हम सब अपने अपने घरों, उद्योगों के कचरे का निस्तारण करते हुए ये ध्यान अवश्य रखें कि इस निस्तारण के लिये हम वह प्रक्रिया अपनायें जिससे वायु व जल प्रदूषित न हों! इस प्रक्रिया में हमारा कुछ समय व धन अवश्य लग सकता है, किंतु हम प्रकृति को स्वच्छ रखने में अपनी भूमिका का निर्वहन करें! स्मरण रहे कि हमारा अस्तित्व इसी प्रकृति पर निर्भर है, यह प्रकृति यदि प्रदूषित होगी तो हमारे जीवन पर ही संकट पड़ेगा! अत: इस प्रकृति को प्रदूषित न करें!
जिस वृक्ष की डाल पर बैठे हैं उसी को काटने का कार्य न करें!
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद.
03.11.2024
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