नमन उन्हें, जिन्होंने हमारा व्यक्तित्व निर्माण किया
नमन उन्हें, जिन्होंने हमारा व्यक्तित्व निर्माण किया
आज शिक्षक दिवस है। देशभर में हम सब अपने अपने शिक्षकों को याद करते हैं, सम्मानित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारने में तमाम शिक्षकों का योगदान रहता है किन्तु उनमें से एक या दो ही ऐसे होते हैं जिनका उसके व्यक्तित्व के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान होता है।
इस संदर्भ में अपनी आध्यात्मिक गुरु माताजी श्री निर्मला देवी जी को सादर शत् शत् नमन करता हूॅं जिन्होंने मुझे आध्यात्मिक चेतना प्रदान कर जीवन को आध्यात्मिकता में ढालने का अवसर प्रदान किया और मेरा संपूर्ण व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो गया।
लेकिन यहॉं हम भौतिक व सामाजिक जीवन में मार्गदर्शन करने वाले गुरुजनों की बात करेंगे।
वैसे तो मनुष्य के सर्वप्रथम गुरु उसके माता-पिता ही होते हैं और उनसे ही तमाम प्राथमिक आचार व्यवहार सीखने को मिलता है। मेरे भी प्रथम गुरु मेरे माता-पिता ही थे।
हमारा परिवार एक संयुक्त परिवार था। हमारे साथ ही हमारे बाबा (दादाजी) भी रहते थे। हमारे बाबा स्वयं एक शिक्षक थे और अत्यंत प्रतिष्ठित शिक्षक थे। जब मैं तीन वर्ष का ही था तब से ही उन्होंने मुझे अक्षर ज्ञान व गणित सिखाना शुरू कर दिया था। पॉंच वर्ष की आयु होते होते हमारा दाखिला दीवान बाजार में मोतीबाग प्राइमरी स्कूल में करवा दिया गया। संयोग से हमारे नाना जी उस स्कूल में हेड मास्टर थे। वह भी नामी हेडमास्टर थे और उन्होंने ही हमारा दाखिला अपने स्कूल में करवाया था। वह स्कूल में निरंतर हमारी शिक्षा पर निगरानी रखते थे।
इस प्रकार हमारी शिक्षा दो दो नामी हेडमास्टरों की देख रेख में शुरु हुई। नानाजी तो स्कूल में हेड मास्टर थे जिस कारण सभी शिक्षक हमारा विशेष ख्याल रखते थे।
हमारे बाबा मुरादाबाद में ही नार्मल स्कूल में हेडमास्टर थे।
हमारी असली पढ़ाई हमारे बाबा की देख रेख में ही होती थी, क्योंकि घर पर शाम के समय वह ही हमें पढ़ाते थे।उनका पढ़ाने का तरीका बहुत अच्छा था। गणित का जोड़ घटाना, गुणा, भाग आदि वह बड़े रुचिकर तरीके से समझाते थे। साथ ही पहाड़े याद करने पर वह बहुत जोर देते थे। हमें ध्यान है कि हम कक्षा तीन में ही थे लेकिन हमें पच्चीस तक के पहाड़े याद थे। वह कोई भी पहाड़ा कभी भी किसी भी क्रम से पूछ लेते थे और गलत बताने पर पीठ पर हल्का सा घूंसा (जिसे वह डुक्क कहते थे) मारते थे। हिन्दी में वह रोज एक लंबे पैराग्राफ का इमला बोलते थे। इमले में जो गलतियां होती थीं उन्हें अलग से लिखवाते थे, फिर उन शब्दों को बार बार लिखवाते थे, जिसे वह गलतियों की मश्क कहते थे। अगर उन गलतियों वाले शब्द आगे चलकर दोबारा गलत होते थे तो फिर एक डुक्क पड़ता था।
अक्सर सवाल करते वक्त या इमला लिखते वक्त सोचते हुए मैं टांटल की कलम के पिछले हिस्से को मुंह में कुतरने लगता था। जब भी बाबा की नजर मुझ पर पड़ती तो इस हरकत पर भी एक डुक्क पड़ता था।
पढ़ाई के साथ साथ वह सामान्य व्यावहारिक शिक्षा भी खेल खेल में हमें सिखा देते थे। जैसे जब भी हम उनके साथ दोपहर का खाना खाते थे तो वह उस समय हमें पानी नहीं पीने देते थे। खाने के बाद जब हम लेटते थे तो पहले सीधे लेटने को कहते थे, और सोलह तक गिनती गिनवाते थे, फिर बांयी ओर करवट दिलाकर बत्तीस तक गिनवाते थे और बाद में दांयी करवट दिलाकर चौंसठ तक गिनवाते थे। आधे घंटे बाद स्वयं भी पानी पीते थे और हमें भी पिलाते थे।
यहॉं पर हम अपनी माताजी का उल्लेख नहीं करेंगे तो बेईमानी होगी। वह भी अत्यंत मेधावी महिला थीं और उन्होंने गणित में डिस्टिंक्शन के साथ मिडिल पास किया था। बाबा के पढ़ाने के साथ साथ वह सदैव हमारा ध्यान रखती थीं, जो बाबा ने पढ़ाया, वह हमें समझ आ गया या नहीं, ये वही देखती थीं, और जहॉं समझ नहीं आता था तो समझा भी देती थीं।
जब हम कक्षा छह में थे तभी हमारे बाबा का स्वर्गवास हो गया था।
उसके बाद हमारी पढ़ाई का जिम्मा हमारे पिताजी ने सम्हाला। गणित व हिन्दी की तो हमारी नींव अत्यंत पुख्ता थी, अतः उसमें हमें कोई दिक्कत नहीं होती थी। छठे से अंग्रेजी भी जुड़ गयी थी। अंग्रेजी की पढ़ाई हमें हमारे पिताजी ने करवाई और उनका जोर ग्रामर पर अत्यधिक रहता था। उसमें भी ट्रांसलेशन का अभ्यास वह बहुत करवाते थे। मैं कक्षा आठ में था और कैसा भी मुश्किल वाक्य हो उसकी ट्रांसलेशन कर देता था। एक बार हम सभी को पिताजी बंबई (वर्तमान मुंबई) घुमाने ले गये थे। वहॉं हमारे एक रिश्तेदार जो डाक्टर थे , उन्हें जब पता चला कि हम कक्षा आठ में हैं तो उन्होंने हमसे इस वाक्य का ट्रांसलेशन पूछा 'डाक्टर के आने से पहले मरीज मर चुका था' और मैंने सही बता दिया। फिर तो उन्होंने कई वाक्य पूछे और मैं सही बताता चला गया। कहना न होगा कि हमारी उस दिन बहुत तारीफ हुई, पिताजी का सीना भी गर्व से चौड़ा हो गया।
आज भी जब अपने छात्र जीवन की ओर नजर जाती है तो अपने बाबा नाना और अपने माता-पिता के प्रति ह्रदय आदर और श्रद्धा से भर जाता है, क्योंकि हमारी प्रारंभिक शिक्षा की नींव उन्होंने ही पुख्ता की थी जिस पर हमारी स्नातकोत्तर तक की शिक्षा भव्य तरीके से संपन्न हो सकी और हम जीवन में सम्मानजनक पद और प्रतिष्ठा पा सके।
आज शिक्षक दिवस पर हम अपने समस्त शिक्षकों के साथ साथ अपने बाबा, नाना जी, व माता-पिता, को भी ह्रदय से श्रद्धापूर्वक नमन करता हूॅं। वो स्वर्ग में बैठे बैठे अवश्य आनंदित हो रहे होंगे और हमें आशीर्वाद दे रहे होंगे।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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