कीर्तिशेष पंडित मदन मोहन व्यास : मआनवीय संवेदनाओं को स्वर देनेवाले कवि।

 कीर्तिशेष पंडित मदन मोहन व्यास : मआनवीय संवेदनाओं को स्वर देनेवाले कवि।

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कीर्ति शेष पंडित मदन मोहन व्यास जी से यद्यपि मेरा बहुत संक्षिप्त परिचय रहा था। पारकर इंटर कालिज में मेरे तीन छोटे भाई अध्ययनरत थे। बड़ा भाई होने के नाते स्कूल में अभिभावक के तौर पर अक्सर मुझे ही जाना पड़ता था और वहाँ उनसे भेंट हो जाती थी। भाइयों से व्यास जी के संदर्भ में यदा कदा चर्चा होती रहती थी। स्कूल की मैगजीन में उनकी रचनाएँ पढ़ कर भी उनके प्रति श्रद्धाभाव था। 

दो तीन बार स्कूल के कार्यक्रमों में उन्हें सुना था।

इसके अलावा रेलवे के मनोरंजन सदन में भी उन्हें व प्रोफेसर महेंद्र प्रताप जी को सुना था।

उसी कार्यक्रम में संगीत का भी कार्यक्रम था। उस कार्यक्रम में पारकर कालेज के ही एक अन्य शिक्षक स्मृति शेष प्रेम प्रकाश जी ने वायलिन वादन की प्रस्तुति दी थी और तबले पर संगत व्यास जी ने दी थी। अत्यंत अद्भुत प्रस्तुति थी वह। इतनी शानदार जुगलबंदी थी कि वह कार्यक्रम आज भी मेरे मन में अंकित है। कुछ दिनों पश्चात प्रेमप्रकाश जी को पक्षाघात हो गया था और वह वायलिन बजाने में असमर्थ हो गये थे। उसी वर्ष कालेज की मैगजीन में उन्होंने अपनी व्यथा एक कुंडली में व्यक्त की थी, जिसकी दो पक्तियां मुझे आज तक याद हैं:

         बेला वादन में निपुण, प्रियवर प्रेम प्रकाश।

         पक्षाघाती दैत्य ने, तन से किया निराश।

इस कुंडली का अंत  

                'टंगा खूँटी पर बेला' 

से हुआ था। पूरी कुंडली पढ़ने से कवि ह्रदय में संगीतकार मित्र की अक्षमता के कारण उपजी व्यथा स्पष्ट परिलक्षित होती थी।

वस्तुत: वह मानवीय संवेदनाओं को स्वर देने वाले कवि व संगीतज्ञ थे।

वर्ष 1982 के उत्तरार्द्ध में मेरा स्थानांतरण रामपुर हो गया था। रामपुर में जिस इंदिरा कालोनी में मेरा प्रारंभिक निवास था, वहीं व्यास जी की बहन श्रीमती कुंतल सोती का भी मकान निर्माणाधीन था। वह भी वहाँ एक कालेज में संगीत की शिक्षिका थीं। क्योंकि मैं स्टेट बैंक में वैयक्तिक विभाग में पटल अधिकारी था, और तमाम सरकारी विभागों के वेतन के खाते वहीं थे, अत: मेरा संपर्क उनसे भी प्रगाढ़ था।

वहीं एक बार दादा माहेश्वर तिवारी जी एवं बहिन जी बाल सुंदरी जी के भी दर्शन हुए थे। 

वर्ष 1983 में ही मैंने लिखना शुरू किया था, और व्यास जी से संपर्क बढ़ाना चाहता था किंतु दुर्भाग्य से वर्ष 83 में ही व्यास जी की मृत्यु हो गयी थी, और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना मात्र सपना ही रह गया।

आज पटल पर उनकी तमाम रचनाएं पढ़ने को मिलीं। इनमें से कुछ रचनाएं मैंने कालेज की मैगजीन में भी पढ़ीं थीं। उनकी रचनाओं में जिस खूबसूरती से व्यंग मिश्रित हास्य होता था उसका मैं कायल था।

आज पटल पर उनकी रचनाएं पढ़ने के बाद हास्य के अलावा उनके गीतों को पढ़ने का भी अवसर मिला। उनकी विभिन्न रचनाओं को पढ़कर यही कहा जा सकता है कि उन्हें भी साहित्यिक जगत में वह पहचान नहीं मिल पाई जिसके वह अधिकारी थे। 

डा• मनोज रस्तोगी जी ने आज उनकी स्मृतियों को पुनर्जीवित करने का बहुत सुंदर‌ कार्य किया है। मेरी भी इच्छा यही है कि हम सब साहित्यकारों द्वारा मिलजुल कर उनके अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित कराया जाये, ताकि उनकी ये रचनाएं संसार के सामने आ सकें।


श्रीकृष्ण शुक्ल,

MMIG 6,

रामगंगा विहार,

मुरादाबाद।

मोबाइल नंबर 9456641400

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