अब यहॉं रूदन न होगा, रोष होगा।


 अब यहॉं रूदन न होगा, रोष होगा।

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गूँजता जयघोष शंकर का जहाँ था,

सुना है इकबाल हजरत का वहॉं था,

रकतरंजित वो धरा फिर हो गयी है,

खो गया चैनो अमन जाने कहाँ है।


मृत्यु भी अब धर्म पहले पूछती है,

तड़तड़ाती गोलियॉ फिर गूॅंजती हैं,

और मानवता यहॉं पर क्षत विक्षत है,

बस जिहादी मानसिकता नाचती है।


जंगली कुत्ते यहॉं फिर आ रहे हैं,

गाय बछड़ों को पुनः धमका रहे हैं,

काट खाना, नोंचना फिर मार देना,

मजहबी उन्माद फिर फैला रहे हैं।


क्यारियां केशर की सूनी सी पड़ी हैं,

शिकारों की पंक्तियां ठिठकी खड़ी हैं,

बसी सिहरन झील की गहराइयों में,

मरघटी सी शांति है अब वादियों में।


अब यहॉं रूदन न होगा‌ रोष होगा,

अहिंसा की जगह हिंसक घोष होगा,

अब जिहादी पशु, न पालक बच सकेंगे,

देखना फिर से यहॉं जयघोष होगा।


क्यारियों में रंग केसर का खिलेगा,

दूब का मैदान भी कायम रहेगा,

शंखध्वनि से वादियां गुंजित रहेंगी,

तिरंगे का ही सदा वर्चस्व होगा।

तिरंगे का ही सदा वर्चस्व होगा।


श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।

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