वन नेशन वन इलैक्शन
आज के आर्यावर्त केसरी में वन नेशन वन इलैक्शन पर
बहुत अच्छा और तथ्यपरक संपादकीय लिखा है आदरणीय वत्स जी ने। वैसे भी वन नेशन वन इलैक्शन भारत में नयी बात तो नहीं है। पहले तो विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ साथ ही होते थे। जब तक सरकारें पूरे पॉंच वर्ष चलती रहीं, चुनाव भी साथ साथ होते रहे। वत्स जी ने सही लिखा है। बार बार आचार संहिता लगने से तमाम विकास कार्यों पर पाबंदियां लग जाती हैं। राजनेताओं की प्राथमिकता भी चुनाव हो जाती है और विकास पिछड़ जाता है।
एक साथ चुनाव करवाने का एक लाभ यह भी है कि बार बार चुनावों पर होने वाले अनावश्यक खर्च से बचा जा सकता है। एक बार में ही चुनावी प्रक्रिया के बाद पॉंच वर्ष के लिये निश्चिंतता से विकास और जनहित के कार्यों पर सरकारें पूरा ध्यान केंद्रित रख सकती हैं।इसमें एक प्रश्न ये अवश्य उठ सकता है कि एक साथ चुनाव के बाद यदि लोकसभा या कोई विधानसभा मध्य अवधि में भंग होती है तब क्या होगा। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने इस संदर्भ में उचित सुझाव दिया है कि संबंधित विधानसभा या लोकसभा का मध्यावधि चुनाव यदि करवाना पड़े तो वह चुनाव पॉंच वर्ष के लिये न होकर उस सभा के शेष बचे कार्यकाल हेतु ही होगा।
इसी कड़ी में एक सुझाव यह भी रखा जा सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले व्यक्ति या दल को वैकल्पिक सरकार बनाने की रूपरेखा भी देनी होगी जिसमें उनके समर्थक दलों व सदस्यों की सहमति भी निहित हो ताकि विश्वास मत हारने वाली सरकार के स्थान पर तुरंत दूसरी सरकार गठित हो सके और मध्यावधि चुनाव न करवाना पड़े।।
देश हित में ऐसी व्यवस्था होनी जरूरी है। यदि ऐसी
व्यवस्था नहीं हुई तो वन नेशन वन इलैक्शन की सारी कवायद ही व्यर्थ हो जायेगी।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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