उगें हरे संवाद, वर्तमान परिदृश्य पर समग्र चिंतन करता दोहा संग्रह।

 उगें हरे संवाद, वर्तमान परिदृश्य पर समग्र चिंतन करता दोहा संग्रह।-

--------------------------------------------------------

योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' यद्यपि नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर हैं, लेकिन यह भी सच है कि वह दोहों के भी विशेषज्ञ हैं। फेसबुक पर प्रतिदिन उनका एक दोहा पढ़ने को मिलता है। उनके दोहों में भी नवगीत की छाप मिलती है। उनके दोहों के बिंब नवगीत की आधारशिला सरीखे प्रतीत होते हैं।

उनका ही एक दोहा देखते हैं:

मिट जाएं मन के सभी, मनमुटाव अवसाद।                        चुप के ऊसर में अगर, उगें हरे संवाद।।

यह दोहा उनके सद्य प्रकाशित दोहा संग्रह 'उगें हरे संवाद' का परिचयात्मक दोहा है। यह दोहा संग्रह अभी कुछ दिन पूर्व ही एक कार्यक्रम में उन्होंने मुझे बड़े अपनत्व के साथ भेंट किया था, साथ ही आग्रह भी किया कि पुस्तक पर अपना अभिमत व्यक्त करूॅं।

वस्तुतः दोहा चार चरण और चौबीस मात्राओं का एक छोटा सा छंद है, लेकिन इसकी विशेषता यह है कि इसमें गूढ़ से गूढ़तम बात सूक्ष्म रूप में प्रभावशाली तरीके से व्यक्त की जा सकती है।

दोहे की विशेषता के संदर्भ में कविवर बिहारी की सतसई के संदर्भ में रचित इस दोहे से प्रमाणित हो जाती है:

सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।                          देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।।

मैंने उनके दोहा संग्रह में निहित सभी दोहे बड़े ध्यान से दो- दो, तीन - तीन बार पढ़ें हैं और मैं यह प्रामाणिकता के साथ कह सकता हूॅं कि पुस्तक में प्रकाशित सभी दोहे वास्तव में नाविक के तीर ही हैं।

एक भी दोहा ऐसा नहीं है, जिसमें कोई संदेश न छिपा हो।

उनकी भाषा आम बातचीत की भाषा है, लेकिन जैसा मैंने पूर्व में बताया कि उनके दोहों में जो बिंब हैं, उन पर नवगीत की छाप मिलती है और दोहों की शब्दावली व तुकांत में जो प्रयोग उन्होंने किये हैं वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलते।

एक उदाहरण देखिए:

यात्राएं अपनत्व की, कैसे हों आश्वस्त।                        विश्वासों के मार्ग जब, हैं सारे क्षतिग्रस्त।।

अपनत्व की यात्रा, विश्वासों के मार्ग , इन बिंबों से ही तो नवगीत अंकुरित होता है।

उनके दोहों में जीवन की, समाज की, विभिन्न परिस्थितियों व विषमताओं पर एक जागरूक चिंता दिखाई देती है, साथ ही जीवन दर्शन, साहित्य सृजन की गुणवत्ता में क्षरण, अध्ययन में रुचि की कमी, मोबाइल संस्कृति से उपजी संवादहीनता, आभासी दुनिया में संबंधों में संवेदनशीलता का अभाव, सामाजिक विसंगतियां, जाति भेद, वर्ग भेद, ऊॅंच नीच आदि का चिंतन मिलता है, जो स्पष्ट प्रमाण है कि वह एक जागरूक साहित्यकार हैं, ऐसा साहित्यकार अपने सामाजिक परिवेश व आसपास के परिदृश्य पर लेखनी चलाए बिना नहीं रह सकता। उन्होंने समाज को आईना दिखाने का दायित्व बखूबी निभाया है।

जीवन के नश्वर होने के संदर्भ में उनका यह दोहा स्पष्ट संदेश देता है कि मृत्यु सभी की होनी है, साथ में सीख भी है जब जीवन नश्वर है तो घमंड करने का क्या औचित्य है:

उसका निश्चित अंत है, जिसका है आरम्भ।                      पगले फिर क्यों पालता, भीतर इतना दम्भ।।

सामाजिक विषमता पर प्रहार करने हुए उनकी कलम इस प्रकार चली है:

हुआ जन्म या कर्म से, तू ऊंचा मैं नीच।                      खींचतान चलती रही, सही ग़लत के बीच।।

पत्र पत्रिकाएं पुस्तकों के अध्ययन के प्रति समाज में व्याप्त अरुचि को उन्होंने इस दोहे में बखूबी दर्शाया है-

हममें खुशबू ज्ञान की, भीतर छिपी अपार।                  अलमारी की पुस्तकें, कहती हैं हर बार।।

साथ ही सृजन को भाषा के बंधन से परे बताते हुए वह कहते हैं कि सार्थक सृजन किसी भी भाषा में किया जा सकता है:

भाषा की हद में नहीं, बॅंध सकता साहित्य।                        ज्यों हर सीमा से परे, दें प्रकाश आदित्य।।

वर्तमान समाज में नैतिक मूल्यों की कमी व संस्कृति के क्षरण के प्रति अपनी व्यथा इस प्रकार व्यक्त की है:

ऐसे कटु परिदृश्य का, कभी न था अनुमान।                      सूली पर आदर्श हैं, संस्कृति लहूलुहान।।

साथ ही मोबाइल संस्कृति पर भी इस प्रकार प्रहार किया है-

दुनियादारी भूलकर, बस अपने में व्यस्त।                          बच्चे क्या बूढ़े हुए, मोबाइल में मस्त।।

आभासी संसार की मित्रता की वास्तविकता पर निम्न दोहा सटीक बैठता है:

साथ नहीं है एक भी, पर हैं मित्र हजार।                      आभासी संसार की महिमा अपरम्पार।।

वर्तमान सोशल मीडिया के दौर में हर व्यक्ति कवि बन गया है, जिनमें न छंद हैं न भाव अभिव्यक्ति की कला है, बस जोड़ तोड़ के बोल हैं।

इस परिस्थिति पर वह लिखते हैं-

कविता तेरे गॉंव में, शब्द मिले स्वच्छंद।                          खोजा किन्तु न मिल सके, अलंकार रस छंद।।

या

लिखी जा रही आजकल, कविता तो भरपूर।                      फिर क्यों होती जा रही, जनमानस से दूर।।

वर्तमान परिदृश्य में राजनीति और राजनेताओं के बीच व्याप्त भ्रष्टाचार पर चोट करते हुए वह लिखते हैं:

खुरच खुरच कर खा गए, सारा हिन्दुस्तान।                          फिर भी कहते गर्व से, मेरा देश महान।।

राजनेताओं व राजनीतिक दलों की अनैतिकता और स्वार्थपरता पर निम्न दोहा और तीव्र प्रहार करता है:

किसको चिन्ता लोक के, सॅंवरें जीवन मंत्र।                        सारे ही दल रच रहे, सत्ता का षड्यंत्र।।

यहॉं तो केवल कुछ दोहे ही उद्धृत किये जा सकते हैं। वस्तुतः तो पूरी पुस्तक में सभी दोहे एक से बढ़कर एक हैं और अपने में कोई न कोई संदेश समेटे हैं।

समग्रता में देखा जाए तो यह दोहा संग्रह वर्तमान सामाजिक परिदृश्य की संपूर्ण विवेचना करता है, कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं।

जाड़ा, गर्मी, बरसात, कोहरा, बसंत, चुनाव, ऊॅंच नीच, मर्यादा, अहंकार, मान अपमान, सभी परिस्थितियों पर उनकी कलम बखूबी चली है।

कुल मिलाकर व्योम जी का यह दोहा संग्रह सामाजिक, व्यावहारिक व मानवीय परिस्थितियों का संपूर्ण चित्रण करता है जो पठनीय भी है और संदेशपरक भी है।

आशा है व्योम जी अपनी सृजन यात्रा में नवगीत के साथ साथ दोहे भी निरंतर लिखते रहेंगे और निकट भविष्य में हमें उनके और दोहा संग्रह पढ़ने को मिलेंगे।

श्रीकृष्ण शुक्ल,

T- 5 / 1103,

आकाश रेजीडेंसी, आदर्श कालोनी,

कांठ रोड,

मुरादाबाद। उ.प्र.

Comments

Popular posts from this blog

आठ फरवरी को किसकी होगी दिल्ली।

ओस की बूँदें : सामाजिक परिवेश पर एक शानदार हाइकू संग्रह I

होली पर मुंह काला कर दिया