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Showing posts from September, 2025

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नमन उन्हें, जिन्होंने हमारा‌ व्यक्तित्व निर्माण किया

 नमन उन्हें, जिन्होंने हमारा‌ व्यक्तित्व निर्माण किया आज शिक्षक दिवस है। देशभर में हम सब अपने अपने शिक्षकों को याद करते हैं, सम्मानित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारने में तमाम शिक्षकों का योगदान रहता है किन्तु उनमें से एक या दो ही ऐसे होते हैं जिनका उसके व्यक्तित्व के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान होता है। इस संदर्भ में अपनी आध्यात्मिक गुरु माताजी श्री निर्मला देवी जी को सादर शत् शत् नमन करता हूॅं जिन्होंने मुझे आध्यात्मिक चेतना प्रदान कर जीवन को आध्यात्मिकता में ढालने का अवसर प्रदान किया और मेरा संपूर्ण व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो गया।  लेकिन यहॉं हम भौतिक व सामाजिक जीवन में मार्गदर्शन करने वाले गुरुजनों की बात करेंगे। वैसे तो मनुष्य के सर्वप्रथम गुरु उसके माता-पिता ही होते हैं और उनसे ही तमाम प्राथमिक आचार व्यवहार सीखने को मिलता है। मेरे भी प्रथम गुरु मेरे माता-पिता ही थे। हमारा परिवार एक संयुक्त परिवार था। हमारे साथ ही हमारे बाबा (दादाजी) भी रहते थे। हमारे बाबा स्वयं एक शिक्षक थे और अत्यंत प्रतिष्ठित शिक्षक थे। जब मैं तीन वर्ष का ही था तब से ही उन्होंने मुझ...

पानी पर तैरती चोटियां।

 पानी पर तैरती चोटियां। कहते हैं मनुष्य को बचपन की घटनाएं, तीन चार साल की अवस्था के बाद ही याद रहती है। बात काफी हद तक सही भी है क्योंकि मैं भी जब अपने बचपन में झांकता हूॅं तो स्कूल में प्रवेश के समय की और पढ़ाई के दौरान घटी कुछ घटनाएं ही याद आती हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि अत्यंत छोटी अवस्था में घटी एक दो घटनाएं मुझे अब भी याद हैं। उस समय मेरी आयु बमुश्किल दो वर्ष की होगी। हमारे मौसाजी इलाहाबाद बैंक में शाखा प्रबंधक थे, और उनका स्थानांतरण कलकत्ता हो गया था। उसी समय में हम सपरिवार कलकत्ता घूमने गये थे। हमारे पिताजी, माताजी, मेरे से तीन वर्ष बड़ी हमारी बहन और दो वर्ष का मैं।  कलकत्ता यात्रा की सिर्फ दो यादें मेरे स्मृति पटल पर अंकित हैं। एक तो वहां हम पिताजी की गोद में कलकत्ता की सड़कों पर घूमने निकले थे, वहीं सामने से ट्राम आयी और हमारे पिताजी ने हाथ दिखाने को कहा, हमने हाथ उठाया और ट्राम रुक गयी और हम सभी ट्राम में चढ़ गये। वह दृश्य स्मृति पटल पर अब तक अंकित है। दूसरी घटना कुछ इस प्रकार है कि हमारा व मौसाजी का परिवार हुगली नदी में नहाने के लिए गये थे। हुगली नदी का वह मटम...

जब होली खेलने के चक्कर में जान पर बन आई

 जब होली खेलने के चक्कर में जान पर बन आई बात वर्ष 1959 की है। हमारी उम्र पांच वर्ष से कुछ अधिक थी। होली के बाद दुल्हैंडी का दिन था। सुबह लगभग 8 बजे हमारे पिताजी ने हमें तैयार किया, स्वयं झकाझक सफेद कुर्ता पायजामा पहना। बाल्टी में रंग घोला गया। उन दिनों बांस की पिचकारियां ही बाजार में मिलती थीं, यद्यपि पीतल की पिचकारियां भी होती थीं, लेकिन वह मंहगी होती थीं। बांस की पिचकारी में अंदर जो डंडी होती थी उस पर नीचे की ओर कपड़ा लपेट कर मोटा किया जाता था और वह वाशर का काम करता था। पिताजी ने पिचकारी तैयार करके हमें दे दी और सामने खड़े होकर कहा रंग छोड़ो। हमने भी पिचकारी में रंग भरकर उनके कुर्ते पायजामे पर बढ़िया चित्रकारी कर दी।  इस प्रकार पिचकारी की टैस्टिंग पूरी हो गयी।  इसके बाद हम पिताजी के साथ पिचकारी और रंग की बाल्टी लेकर छत पर चले गये ताकि गली में आने जाने वालों पर रंग डाल सकें। हमारे मकान में बीच में बड़ा सा आंगन था जिसके तीन ओर छज्जा था जिस पर कोई रेलिंग नही थी। हम सभी अक्सर छज्जे पर भाग दौड़ करते रहते थे, जो सामान्य बात थी। छज्जे के बाद बैठक की मुंडेर पर से हम ग...