एक नन्हीं कली
एक नन्हीं कली, लाड़ से थी पली, नीड़ को छोड़कर बन पराई चली, एक नन्हीं कली। खेलते कूदते कब बड़ी हो गई,, पॉंव पर अपने खुद ही खड़ी हो गई। आज दुल्हन बनी बैठ डोली चली, एक नन्हीं कली, लाड़ से थी पली, प्यार पाया जहॉं, खेलती थी जहॉं, बचपना और यौवन भी पाया यहॉं, छूट ऑंगन गया, जिसमें फूली फूली, एक नन्हीं कली, लाड़ से थी पली धैर्य से तुम स्वयं लक्ष्य को साधना प्रीत की डोर से रिश्तों को बॉंधना, पथ नया है नयी है पिया की गली, एक नन्हीं कली, लाड़ से थी पली, वेद सुषमा की बगिया की कोमल कली, आज सुरभित हुई, फूल बन कर खिली, छूटा उपवन पुनः वंदना को मिली, एक नन्हीं कली, लाड़ से थी पली। नीड़ को छोड़कर बन पराई चली। एक नन्हीं कली। श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।