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सोच ज़रा क्या खोया तूने, सोच जरा क्या पाया II

 धन यश वैभव के चक्कर में, जीवन व्यर्थ गँवाया I अंतिम पल वह धन भी तेरे, किंचित काम न आया II काया तो छूटी, माया भी, साथ न ले जा पाया I सोच ज़रा क्या खोया तूने, सोच जरा क्या पाया II सागर की गहराई से जो हर पल डरता आया I सिंधु तीर की तलछट से वो  बस पत्थर चुन पाया II जो लहरों पर तैर गया, उसने ही मोती पाया I हंसों का अगुआ बन कर भी,  हंसों को ही भूला I ताज़ पहनकर बगुले जैसा, फिरता फूला फूला II जिसने थामा हाथ उसे ही तूने सदा गिराया I सबके पथ अवरुद्ध किये, खुद आगे बढ़ना भूला I तू तल पर ही रहा शिखर पर, पहुँचा लँगड़ा लूला II छल छंदों की परिणति को भी, अब तक जान न पाया I अपना हित तो साध न पाया, बैठा बना पुरोधाI उस गड्ढे में गिरा स्वयं जो, दूजों खातिर खोदा II अवसर मिले अनेकों लेकिन, भुना एक नहिं पाया I तू मंजिल तक पहुँच गया था, फिर कैसे तू अटका I मंजिल पर टिकने के बदले, अहंकार में भटका II नियति जिसे उलझाती उसको कृष्ण न सुलझा पाया II श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद I

कुछ बरसाती दोहे

कुछ बरसाती दोहे: दिनभर बढ़ती उमस में, छोटू था बेचैन। बारिश में भीगे बिना, कैसे आवे चैन ।। उमड़ घुमड़ करते रहे, बादल सारी रात। हाथ निराशा ही लगी, हुई नहीं बरसात।। नेताओं सा हो गया, मेघों का आलाप । आश्वासन देते रहे, दिया न लालीपाप ।। किया अंतत: मेघ ने, थोड़ा सा छिड़काव । टेबिल पर लुढ़की रही, कागज वाली नाव ।। छिटपुट बारिश से हुईं, सड़कें सारी ताल । गिरे न औंधे मुँह कहीं, खुद को तनिक सँभाल ।। ताप भले ही कम हुआ, उमस बढ़ गयी आज । बदन चिपचिपा हो रहा, मची हुई है खाज ।। क्यों तरसाते बादलों, खुलकर बरसो आज । छत पर जी भर भीग लें, मिट जाये सब खाज ।। श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद ।