सोच ज़रा क्या खोया तूने, सोच जरा क्या पाया II
धन यश वैभव के चक्कर में, जीवन व्यर्थ गँवाया I अंतिम पल वह धन भी तेरे, किंचित काम न आया II काया तो छूटी, माया भी, साथ न ले जा पाया I सोच ज़रा क्या खोया तूने, सोच जरा क्या पाया II सागर की गहराई से जो हर पल डरता आया I सिंधु तीर की तलछट से वो बस पत्थर चुन पाया II जो लहरों पर तैर गया, उसने ही मोती पाया I हंसों का अगुआ बन कर भी, हंसों को ही भूला I ताज़ पहनकर बगुले जैसा, फिरता फूला फूला II जिसने थामा हाथ उसे ही तूने सदा गिराया I सबके पथ अवरुद्ध किये, खुद आगे बढ़ना भूला I तू तल पर ही रहा शिखर पर, पहुँचा लँगड़ा लूला II छल छंदों की परिणति को भी, अब तक जान न पाया I अपना हित तो साध न पाया, बैठा बना पुरोधाI उस गड्ढे में गिरा स्वयं जो, दूजों खातिर खोदा II अवसर मिले अनेकों लेकिन, भुना एक नहिं पाया I तू मंजिल तक पहुँच गया था, फिर कैसे तू अटका I मंजिल पर टिकने के बदले, अहंकार में भटका II नियति जिसे उलझाती उसको कृष्ण न सुलझा पाया II श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद I