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Showing posts from April, 2021

वक्त की अब नजाकत भी पहचान ले।।

  वक्त की अब नजाकत भी पहचान ले।। --------------------------------------- वक्त की अब नजाकत भी पहचान ले।। वक्त क्या कह रहा है जरा जान ले। मौत का कुछ हवा से मसौदा हुआ। बेवज़ह मौत से रार मत ठान ले।। कुछ दिनों घर के भीतर ही रह बंद तू। बंद सपनों की गठरी में अरमान ले।। मिलने जुलने के मौके मिलेंगे बहुत। कुछ दिनों घर की खटिया पे ही तान ले। क्या मिलेगा किसी कुंभ के स्नान में। बस कठौती में गंगा है ये मान ले।। मृत्यु से आज थोड़ा तो भयभीत हो। ये अचानक ही आयेगी फरमान ले।। रिश्ते नाते न होंगे न दौलत तेरी । काम कोई  न आयेगा ये मान ले।।  चार कंधे भी होंगे मयस्सर नहीं। साथ कोई न होगा तू ये जान ले।। तेरी कीमत यहाँ मात्र इक वोट है। कृष्ण औकात अपनी तू पहचान ले । श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।

तटस्थ धर्मराज

तटस्थ धर्मराज ------------------ वाह रे धर्मराज, कलियुग में भी दिखा ही दिया अपना प्रभाव। तब एक युधिष्ठिर थे, यद्यपि धर्मराज कहलाते थे, लेकिन उन्होंने घोर अधर्म किया हारा हुआ राज्य फिर से पाने के लिये,  द्रुपदसुता को ही दाँव पर लगा दिया। उसकी लाज लुटती रही,धर्मराज तटस्थ बने रहे। कलियुग में फिर  धर्मराज आ गये, इस बार चुनाव आयोग के रूप में आये, वायरस के संक्रमण का फैलाव भी उन्हें डिगा न सका, लोग मरते रहे, आंकड़े बढ़ते रहे, रैलियां, रोड शो होते रहे,  किंतुु धर्मराज तटस्थ रहे। एक राज्य की विजय का सवाल  आज भी धर्मराज से अधर्म करवाता रहा, भीष्म, द्रोणाचार्य और विदुर,  आज भी कुछ कहने का साहस न जुटा सके,  और राजा तो तब भी धृतराष्ट थे, जन्मान्ध थे,  आज भी धृतराष्ट सम ही हैं, उन्हें कुछ दीखता ही नहीं, उस समय द्रुपदसुता की लाज बचाने कृष्ण को आना पड़ा, आज तो वह भी नहीं हैं कहीं, हाँ न्याय के मंदिर से एक आवाज आयी तो है, धर्मराज पर उँगली उठाई तो है। लेकिन युद्ध तो आज अपने चरम पर है, तब द्रौपदी ही एकमात्र पीड़ित थी, आज समस्त प्रजा ही पीड़ित है, मर रही है। जरा सोचो तो ...

आज है बेबस हर इन्सान।

आज है बेबस हर इन्सान। सभी के संकट में हैं प्राण।। करोना मचा रहा उत्पात। कर रहा है छिप छिप कर घात। मनुज है बेबस औ लाचार, हो रहा सांसों पर आघात। एक वायरस के प्रभाव से,  हार रहा इन्सान। नहीं हैं संसाधन पर्याप्त। हताशा चहुं दिशि में है व्याप्त। सांस की डोर रही है टूट, वृक्ष से ज्यों झरते हैं पात।। क्रूर काल के सम्मुख कितना, बेबस है इन्सान। यहाँ पर भी अपना है दोष, व्यर्थ ही है शासन पर रोष, मुनाफाखोर हुए निर्लज्ज, भर रहे सारे अपना कोष। नोंच रहे हैं इन्सानों को, जमाखोर शैतान। जगाना होगा सकल समाज। जगाओ मानवता को आज। सभी हों सेवा को तैयार, बनेंगे बिगड़े सारे काज।‌ हाथ मदद को उठें असंख्यों बचें सभी के प्राण। निराशा का अब हो अवसान, पुकारो आयेंगे भगवान। वही हैं सबके खेवनहार, रखो बस श्री चरणों में ध्यान।। श्वास श्वास में याद करो तुम, होवेगा कल्याण। श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद।